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धर्माभ्युदय महाकाव्य
संप्रदाय अने समाजनी मर्यादामांथी बहार जनार तथा समाजना म्होटा भागना श्रद्धालु वर्गनी दृष्टिए टीकापात्र वननार म्हारा व्यक्तित्व विपे, ज्यारे म्हें तेमनो आवो उदार अने स्नेहार्द्रभाव अनुभव्यो यारे म्हारी तेमना प्रत्येनी जे श्रद्धा हती ते अनेकगणी वधी गई. म्हने तेमनामां साची साधुताना अभिनव दर्शन थयां अने हुं तेमनो अन्तरंगथी पूजक अने प्रशंसक बन्यो.
पी तो वर्षमां एकाचवार तेमने वंदन करवा जवानो प्रसंग हुं अवश्य लेतो रहेतो. पाटणना भंडारोमाथी के तेमना पोताना वडोदरानी भंडारसांथी जे कोई ग्रन्थ विगेरेनी म्हने जरूर पडती ते तेओ मुक्तमने मोकलावता रहेता अने म्हारी यत्किंचित् साहित्यसेवामां सदाय सहर्ष सहायता आपता रहेता .
सने १९२८ मां म्हारो विचार जर्मनी जवानो थयो, त्यारे ते अंगेनी खवर आपवा तेम ज तेमना आशीर्वाद मेळवावा माटे पण हुं तेमनी पासे खास गयो हतो. जर्मनीथी पाछा आव्या पछी १९३० ना नमक सत्याग्रह वाळा संग्राममां जोडावानुं थयुं अने तेथी जेलनिवास भोगववानुं भाग्य मयुं. जेलमांथी मुक्ति मळ्या पछी, ख० बाबू श्री वहादुरसिंहजीना उत्साह अने आमंत्रणने वश थई, भारतना जगत्प्रसिद्ध महान् कविवर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ प्रस्थापित विश्वविख्यात 'शान्तिनिकेतन - विश्वभारती'मां 'जैन ज्ञानपीठ'नी स्थापना द्वारा त्यां रही 'सिंधी जैन ग्रन्थमाळा प्रकाशित करवानो उपक्रम कर्यो. ए कार्य माटे म्हने पाटणना भंडारोमांथी केटलीक विशिष्ट प्रकारनी साहित्यिक सामग्री प्राप्त करनानी जरूर पडी अने तेथी सने १९३१ ना ग्रीष्मकाळना वेक महिनानो कार्यक्रम योजी हुं पाटण गयो. पंडितजी सुखलालजी पण ते प्रसंगे साथे आव्या हता. ए वखते पू० श्री चतुरविजयजी महाराजे भंडारोमाथी प्रतियो मेळववा करवामां जे अनन्य सहायता आपी हती अने तेनुं जे थोडंक ट्रंकुं वर्णन, म्हें स्व० बाबू श्री बहादुरसिंहजीनां लखेलां स्मरणोमां आप्युं छे, ते ज अहिं उद्धृत करीने सन्तोप मानीश.
“उस ग्रीष्मकालके अवकाशमें मैं अहमदावाद आया और पण्डितजी वगैरहको साथ ले कर पाटणके भण्डारोमेंसे साहित्यिक सामग्री इकट्टी करने तथा प्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ आदि करने करानेके निमित्त दो एक महीने वहाँ ठहरा । मेरे परमपूज्य गुरुस्थानीय प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा उनके साहित्योद्धारकार्यनिरत सुचतुर शिष्यप्रवर मुनिवर श्री चतुरविजयजी महाराजकी मेरे प्रति अप्रतिम वत्सलता एवं ममता के कारण, मेरे अपने कार्य में उनसे संपूर्ण सहायता मिलती रही और उसके कारण भण्डारोंका निरीक्षण करनेमें मुझे यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई । पाटणके भण्डारों की सुव्यवस्था और सुरक्षा आदि करनेमें जितना परिश्रम और जितना उद्यम मुनिवर्य श्री चतुरविजयजीने किया, वैसा आज तक किसी साधुने, किसी ज्ञानभण्डारके निमित्त किया हो ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है । वे बडे कर्तव्यनिष्ट और साहित्य संरक्षक साधुपुरुष थे । मैंने पहले पहल अपने ग्रन्थसम्पादनका “ॐ नमः सिद्धम्” का पाठ उन्हींसे पढा था । पाटणमें संघवीके पाडेमें जो ताडपत्रका मुख्य भण्डार है। उसके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ आदि लेनेमें स्वयं इन शिष्यवत्सल मुनिवरने मुझे बहुत सहायता की । सैकडो ही प्रशस्तियाँ उन्होंने अपने हाथसे लिख कर मुझे दीं। उस उम्र ग्रीष्मकालके भर मध्याह्नमें वे सागरगच्छके उपाश्रयसे चल कर संघवीके पाडेमें पहुँचते और भंडारके पिटारोंमें रखे हुए सैंकडों ही पुस्त - कोंके बस्तोंको अपने हाथसे उठा उठा कर इधर उधर रखते और अमीष्ट पोथीको खोज कर निकालते 1 मण्डारकी पोथियोंको रखनेके लिए कुछ आलमारियाँ नहीं थी सो उनके बनवानेकी इच्छा श्री चतुरविज