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(५) इस सिद्धान्त मान्यता के बिन
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साध्य - सिद्धि नहिं घटती हैस्वात्मरूपकी लब्धि न होती,
नहिं व्रतचर्या बनती है । बन्ध-मोक्ष- फलकी कथनी सव कथनमात्र रह जाती है,
अन्त न आता भव-भ्रमणका, सत्य - शान्ति नहिं मिलती है ॥ ' ं (६).
जब वह आत्मा मोहादिकेके उपशमादिको पा करके,
बाहर में गुरु-उपदेशादिक श्रेष्ठ निमित्त मिला करके |