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अस्तु; अनादिवर्द्ध आत्मा है, स्वकृत-कर्म-फलकां भोगी, कर्मबन्ध - फलभोग - नाश से होता मुक्ति-रमा-योगी । ज्ञाता, द्रष्टा, निजतनु-परिमितं, संकोचतर-धर्मा है, स्वगुण-युक्त रहता है, हरदम धौव्योत्पत्ति-व्ययात्मा है ॥
१ कर्मसन्ततिकी अपेक्षा अनादिकालसे बँधा हुआअर्थात् प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध ऐसे चार प्रकारके बन्धनों से युक्त ।
२ अपने शरीर जितने आकारवाला । ३ संकोच - विस्तारके स्वभावको लिये हुए । ४. उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप-अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे सदा स्थिर रहनेवाला एवं नित्य और पर्याय दृष्टिसे उपजने तथा विनशनेवाला एवं अनित्य ।