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करनेवाले, तेज और बलके बढ़ानेवाले, सुगंधित, सुरस, झिग्ध (चिकने), देवोंके लिये भी दुर्लभ और मनको हरण करनेवाले महाकल्याणक नामके परमान्नको (खीरको) लेकर निप्पुण्यकके पास आई। परन्तु धर्मबोधके द्वारा वहां पहुंचाया हुआ वह दरिद्री अपने तुच्छ अभिप्रायोंके कारण शंकासे व्याकुल होकर विचारने लगा कि, “यह पुरुप मुझे स्वयं बुलाकर भिक्षाके लिये लाया है, इस लिये इसका अभिप्राय मुझे अच्छा नहीं जान पड़ता है। मेरा यह मिट्टीका ठीकरा भिक्षासे प्रायः भर चुका है, सो यह इसे किसी निर्जन स्थानमें ले जाकर अवश्य ही छीन लेगा। तो क्या अब मैं यहांसे एकाएक भाग जाऊं? या बैठकर इसे यहां ही भक्षण कर लूं ? अथवा यह कहकर कि 'मुझे भिक्षासे प्रयोजन नहीं है-भीख नहीं चाहिये' यहांसे शीघ्र ही चला जाऊं?' इस तरहके अनेक विकल्पोंके उठनेसे उसका भय बढ़ने लगा, जिससे कि उसे यह भी स्मरण नहीं रहा कि, मैं कहां जाता हूं और कहां खड़ा हूं। और अतिशय मूर्छा वा ममत्वमें ग्रसित होनेके कारण "संरक्षणनिमित्तक"रौद्रध्यानमें मग्न होकर उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये। इसके एक ही क्षण पीछे उसकी सर्व इन्द्रियोंकी क्रियाएं बन्द हो गई-वह लकड़ी के समान अचेत होकर कुछ भी विचार नहीं कर सका । और धर्मवोधकरकी कन्या तद्दयाको भी जो कि 'यह भोजन ग्रहण करो, यह परमान्न ग्रहण करो' इस प्रकार वारम्वार कहते कहते यक गई थी, नहीं पहिचान सका । "मेरा भीखका यह थोड़ासा कदन्न सब रोगोंका करनेवाला नहीं हो सकता है" इस प्रकारके ध्यानसे वह अज्ञानी उस अमृतके समान भोजनकी उत्तमताको जो कि तद्दया उसे देती थी, विचार ही नहीं सकता था।
१ अपनी प्यारी चीजकी रक्षा करनेके लिये जो ध्यान किया जाता है, वह 'संरक्षणनिमित्तक' नामका पांचवां रौद्रध्यान है ।