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उस राजमहलके ऊपर सातवीं मंजिलपर पहले कहा हुआ परम ऐश्वर्यशाली 'सुस्थित' नामका राजा विलास करता हुआ विराजमान है। और अपने नीचेके निरन्तर आनन्दरूप और नाना व्यापारमय पूर्वोक्त सम्पूर्ण नगरको साक्षात् चारों ओरसे देखता है। उस नगरके वाहर तथा भीतर कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो उसको नहीं दिखती हो। इस फाटकके भीतर पहुंचे हुए भिखारीको भी जिसके कि देखनेसे अतिशय ग्लानि उत्पन्न होती थी, और जो बड़े २ रोगोंसे घिरा हुआ तथा सज्जन पुरुषोंकी दयाका स्थान था, उस निर्मल दृष्टिवाले महात्मा राजेन्द्रने दया करके देखा और अपनी दृष्टिकी वर्षासे मानो उसके पापोंको धो दिया-पापरहित कर दिया। ___ उस समय भोजनालय (रसोई) के 'धर्मवोधकर' नामके अधिकारीने राजाकी उस गरीवपर पड़ती हुई दृष्टिको देखी। वह जाननेकी इच्छासे इस प्रकार विचारने लगा कि, "इस समय मैं यह क्या अद्भुत दृश्य देख रहा हूं? जिसपर महाराज अपनी विशेष दृष्टि डालते हैं, वह मनुष्य तत्काल ही तीन भुवनका राजा हो जाता है और यह भिक्षुक जिसे मैं देख रहा हूं, गरीव, रोगी, निर्धन, मूर्ख, तथा संसारको विरक्त करनेवाला है, अतएव आलोचना करनेसे-भलीभांति विचार करनेसे भी इसपर महारानकी दृष्टिका पड़ना कैसे संभव हो सकता है ? आगे पीछे सोचनेसे यह वात कुछ समझमें नहीं आती है। परन्तु हां! अव मालूम हुआ। इसकी ओर देखनेका यही कारण है कि, 'स्वकर्मविवर' द्वारपालने इसे यहां प्रवेश करने दिया है। और यह स्वकर्मविवर अपरीक्षक नहीं है। अर्थात् जव यह खूब वारीकीसे परीक्षा कर लेता है, तब किसीको भीतर आने देता ह । इसीसे राजाने इस रंककी ओर 'सम्यकदृष्टि से देखा है । इसके सिवाय एक कारण और भी है । वह यह