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इसलिये सिद्धान्तोंके समान यहां भी जो कुछ (सत्कल्पित उपमान) कहा जायगा, उसे युक्तियुक्त अर्थात् ठीक समझना चाहिये । क्योंकि यह उपमारूप होगा ।
इस प्रकारसे यह अन्तरंगकथाशरीर कहा गया । अत्र बहिरंग - कथाशरीर कहते हैं: --
वाह्यकथाशरीर |
मेरुपर्वतके पूर्व विदहमें सुकच्छविजय नामका एक देश है और उसमें क्षेमपुरी नामकी नगरी है। इस नगरीमें सुकच्छविजय के स्वामी श्री अनुसुन्दर चक्रवर्ती रहते थे। वे अपनी आयुके अन्तमें एकवार अपने देशके देखनेकी अभिलापासे विलास करते हुए निकले और एक दिन शंखपुर नामके नगरमें पहुंचे। वहां चित्तरण नामके उद्यानके बीच में एक मनोनन्दन नामका जैनमन्दिर था, जिसमें श्रीसमन्त्र भद्र नामके आचार्य विराजमान थे और उनके समीप महाभद्रा नामकी प्रवर्तिनी (साध्वी ), सुललिता नामकी अतिशय भोली राजपुत्री, पुंडरीक नामका राजपुत्र और एक बड़ी भारी सभा भरी हुई थी ।
उस समय वे धैर्यवान् समन्तभद्राचार्य ज्ञानदृष्टिसे उस चक्रवर्तीको महापापका करनेवाला जानकर इस प्रकारसे बोले किः " लोकमें जिसका कोलाहल सुन पड़ता है, वह संसारीजीव नामका चोर है । इस समय उसे मारे जानेके स्थानमें लिये जाते हैं।" यह सुनकर महाभद्राने विचार किया कि, आचार्य महाराजने जिस जीवका वर्णन किया है, वह कोई नरकगामी जीव होगा । अतएव वह क णालु होकर वहांसे चली और चक्रवर्तीके समीप गई। वहां चक्रवर्तीको महाभद्राके दर्शनमात्र से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । तत्र चक्रवर्तीने अपना सब वृत्तान्त जानकर वैक्रियकलव्धिके बलसे चोरका आकार