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८. आठवें प्रस्ताव में पहले कही हुई सत्र बातोंका मेल मिलता है और संसारी जीव अपना हित करता है । संसारीजीवका संसारसे विरक्त करनेवाला चरित्र सुनकर भव्य पुरुष प्रबुद्ध होता है - चेत जाता है। इसी प्रकार से संसारी जीवको वारवारकी प्रेरणासे अगृहीतसंकेता बड़ी कठिनाई से प्रतिबोधित होती हैं-सुलटती हैं, ऐसा निवेदन किया
जायगा ।
पहले केवलज्ञानसूर्य - श्रीनिर्मलाचार्यको पाकर संसारी जीवने अपनी यह सारी कथा पूछी, सीखी और भले प्रकार स्मरण रक्खी थी। इसी प्रकार 'सदागम' से वार २ पृछकर विशेषतासे स्थिर की थी । इसलिये फिर उसने अवधिज्ञानके उत्पन्न होने से इन सब बातोंका प्रतिपादन किया है।
इस कथा में अन्तरंग लोगोंका ज्ञान, बोलना, जाना, आना, विवाह, बन्धुता आदि सब लोकस्थिति कही गई है, सो उसे दूषित नहीं समझना चाहिये। क्योंकि वह सब दूसरे गुणोंकी आवश्यकतासे उपमाके द्वारा ज्ञान होनेके लिये ही निवेदन की गई है।
क्योंकि - " जो प्रत्यक्षसे तथा अनुभवसे सिद्ध होता हो, और युक्तिसे जिसमें किसी प्रकारका दोप न आता हो, उसे सत्कल्पित उपमान कहते हैं ।"
इस प्रकार के उपमान ( समानता) सिद्धान्तों में अनेक जगह दिखलाई देते हैं। जैसे कि, ( १ ) आवश्यकसूत्रमें आक्षेपयुक्त मुद्रशैली और पुष्करावर्त मेघकी समानता बतलाई गई है, (२) नागदत्तकी कथामें क्रोधादिकों को सर्प कहे हैं, इसी प्रकारसे (३) पिण्डैपणा अध्ययनमें मछली ने अपना अभिप्राय कहा है, और (४) उत्तराध्यन में सूखे पत्तोंने नवीन कोंपलों के प्रति ) अपना संदेशा कहलाया है।