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________________ .१०१ विवर द्वारपालके प्रसादसे मैं आज ही देखता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि, मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा है । यद्यपि मैं इसके द्वारतक पहले कई बार आ चुका हूँ, परन्तु मेरे मन्दभाग्यके कारण यहांके जो दूसरे पापी द्वारपाल हैं, उन्होंने मुझे तिरस्कार करके वारंवार निकाल दिया है-कभी भीतर नहीं आने दिया है । " सो सत्र मेरे इस जीवके विषयमें वरावर घटित होता है । यथाः निकटभव्य अर्थात् ऐसे जीव जिनका कि कल्याण शीघ्र होंनेवाला होता है जब किसी तरहसे जैनशासनको प्राप्त करते हैं, तत्र यद्यपि उसके ( जैनशासनके ) विशेष गुण उन्हें मालूम नहीं होते हैं, तो भी मार्गके अनुयायी होनेके कारण उनके ऐसे परिणाम होते हैं कि, यह अर्हदर्शन (अरहंतदेवका धर्म) बड़ा ही अद्भुत है। क्योंक जो लोग इसमें रहते हैं अर्थात् इसके अनुयायी होते हैं, वे सत्र ही मित्रोंके समान, बन्धुओंके समान, एकप्रयोजन वालोंके समान, एक दूसरेको सोंपे हुए हृदयवालोंके समान, और दो शरीर एक आत्मावालोंके समान परस्पर वर्ताव करते हैं और ये सब अमृततृप्त हैं, तो भी इन्हें किसी प्रकारका भय नहीं है, इनके हृदयमें उत्सुकता (लालसा) नहीं है, तो भी उत्साहकी कमी नहीं है, इनकी सब इच्छाएं पूर्ण हो गई हैं, तो भी जीवोंकी भलाई करनेके लिये ये सदा ही उद्यत रहते हैं। और यह सुन्दर शासनमन्दिर मुझे आज मालूम हुआ है । क्योंकि पहले कभी इसका विचार ही नहीं __ * यहां जिनशासनमन्दिरका अद्भुतपना विरोधाभास अलंकारमें दिखलाया है कि, जो अमृततृप्त हैं अर्थात् नहीं मरनेसे सुखी हैं, वे भयरहित नहीं हो सकते हैं, जो उत्सुकतारहित हैं, वे उत्साही नहीं हो सकते हैं, और जिनकी इच्छाएं पूर्ण हो गई है, वे जीवोंकी भलाई करने में उद्यत नहीं हो सकते हैं।
SR No.010630
Book TitleUpmiti Bhav Prapanch Katha Prastav 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherNathuram Premi
Publication Year1911
Total Pages215
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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