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ग्रंथका महत्त्व प्रगट किया गया,तब मेरी वह ग्रंथावलोकनकी इच्छा और भी बलवती हो उठी और मैंने निश्चय किया कि किसी न किसी प्रकार इस ग्रंथको एकवार परीक्षा-दृष्टि से जरूर देखना चाहिए । झालरापाटनकी उक्त प्रतिको, उसपरसे कई प्रतियाँ करा कर ग्रंथका प्रचार करनेके लिए, ऐलक पन्नालालजी अपने साथ ले गये थे। इस लिए उक्त ग्रंथका सहसा मिलना दुर्लभ हो गया। कुछ समय के बाद जब उन प्रतियों से एक प्रति मोरेनामें पं० गोपालदासजीके पास पहुंच गई तब, समाचार मिलते ही, मैंने पंडितजीसे उसके भेजनेके लिए निवेदन किया । उत्तर मिला कि आधा ग्रंथपं० धन्नालालजी बम्बई ले गये है और आधा यहाँपर देखा जा रहा है। अन्तको, बम्बई, और मोरेना दोनों ही स्थानोंसे ग्रंथकी प्राप्ति नहीं हो सकी । मेरी उस प्रबल इच्छाकी पूर्तिमें इस प्रकारकी बाधा पड़ती देसकर बाबा भागीरथजी वर्णीके हृदयपर बहुत चोट लगी और उन्होंने अजमेर जाकर सेठ नेमिचंदजी सोनीके लेखक द्वारा, जो उस समय भद्र'बाहुसंहिताकी प्रतियाँ उतारनेका ही काम कर रहा था, एक प्रति अपने लिए करानेका प्रबंध कर दिया । बहुत दिनोंके इन्तजार और लिखा पढ़ीके बाद वह प्रति देहलीम बावाजीके नाम वी. पी. द्वारा आई, जिसको लाला जग्गीमलजीने छुड़ाकर पहाड़ी के मंदिर में विराजमान कर दिया
और आखिर वहाँसे वह प्रति मुझको मिल गई। देखनेसे मालूम हुआ कि -यह प्रति कुछ अधूरी है । तब उसके कमती भागकी पूर्ति तथा मिलानके लिए दूसरी पूरी प्रतिके मैंगानेकी जरूरत पैदा हुई, जिसके लिए अनेक स्थानोंसे पत्रव्यवहार किया गया। इस पर सेठ हीराचंद नेमिचंदजी शोलापुरने, पत्र पाते ही, अपने यहाँकी प्रति भेज दी, जो कि इस ग्रंथका पूर्वखंड मात्र है और जिससे मिलानका काम लिया गया। परन्तु इससे फमती भागकी पूर्ति नहीं हो सकी । अतः झालरापाटनसे इस ग्रंथकी पूरी प्रति प्राप्त करनेका फिरसे प्रयत्न किया गया। अबकी बारका प्रयत्न