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निवेदन । जैनहितैषीमें लगभग चार वर्षसे एक 'ग्रन्थ-परीक्षा' शीर्षक लेखमाला निकल रही है । इसके लेखक देवबन्द निवासी श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार हैं । आपके इन लेखोंने जैनसमाजको एक नवीन युगका सन्देशा सुनाया है, और अन्धश्रद्धाके अंधेरेमें निद्रित पड़े हुए लोगोंको चकचौधा देनेवाले प्रकाशसे जायत कर दिया है । यद्यपि बाह्यदृष्टि से अभी तक इन लेखोंका कोई स्थूलमभाव व्यक्त नहीं हुआ है तो भी विद्वानों के अन्तरंगमें एक शब्दहीन हलचल बराबर हो रही है जो समय पर कोई अच्छा परिणाम लाये बिना नहीं रहेगी।
जैनधर्मके उपासक इस बातको भूल रहे थे कि जहाँ हमारे धर्म या सम्पदायमें एक ओर उच्चश्रेणीके निःस्वार्थ और प्रतिभाशाली ग्रन्थकर्ता उत्पन्न हुए हैं वहाँ दूसरी ओर नीचे दर्जके स्वार्थी और तस्कर लेखक भी हुए हैं, अथवा हो सकते हैं, जो अपने खोटे सिक्कोंको महापुरुषोंके नामकी मुद्रासे अंकित करके खरे दामों में चलाया करते हैं । इस भूलके कारण ही आज हमारे यहाँ भगवान कुन्दकुन्द और सोमसेन,समन्तभद्र और जिनसेन (भट्टारक), तथा पूज्यपाद और श्रुतसागर एक ही आसन पर बिठाकर पूजे जाते हैं। लोगोंकी सदसद्विवेकबुद्धिका लोप यहाँ तक हो गया है कि वे संस्कृत या प्राकृतमें लिखे हुए चाहे जैसे वचनोंको आप्त भगवानके वचनोंसे जरा भी कम नहीं समझते ! ग्रन्थपरीक्षाके लेखोंसे हमें आशा है कि भगवान महावीरके अनुयायी अपनी इस भूलको समझ जायँगे और वे आप अपनेको और अपनी सन्तानको धूर्त ग्रन्थकारोंकी चुंगलमें न फंसने देंगे।
जिस समय ये लेख निकले थे, हमारी इच्छा उसी समय हुई थी कि इन्हें स्वतंत्र पुस्तकाकार भी छपवा लिया जाय, जिससे इस विषयकी ओर लोगोंका ध्यान कुछ विशेषतासे आकर्षित हो; परंतु यह एक बिलकुल ही नये ढंगकी चर्चा थी, इस लिए हमने उचित समझा कि कुछ समय तक इस सम्बन्धमें विद्वानोंकी सम्मतिकी प्रतीक्षा की जाय । प्रतीक्षा की गई और खूब की गई । लेखमालाके प्रथम तीन लेखोंको प्रकाशित हुए तीन वर्षसे भी अधिक समय बीत गया; परंतु कहींसे कुछ . भी आहट न सुन पड़ी; विद्वन्मण्डलीकी ओरसे अब तक इनके प्रतिवादमें कोई एक