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________________ परिशिष्ट । इसमें और दर्शनसारमें बतलाये हुए समयमें चार वर्षका अन्तर है। यह गाथा उस गाथासे बिलकुल मिलती जुलती हुई है जो श्वेताम्बरोंकी ओरसे दिगम्बरोंकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें कही जाती है। ओर जो पृष्ठ २८ मे उद्धृतकी जी चुकी है। ७ श्रीश्रतसागरसरिने पदपाहुड़की टीकामें जैनाभासाका उल्टेस इस प्रकार किया है: “गोपुच्छिकानां मतं यथा-इत्थीणं पुणदिक्खाश्वेतवासस सर्वत्र भोजनं प्रासुकंमांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीतिवर्णलोप. कृतः।... द्राविडा सावधं प्रासुकं च न मन्यन्ति । उदोजनं निरासं कुर्वन्ति । यापनीयास्तु वै गर्दभा इव ससरा (१) इव उभयं मन्यन्ते । रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष केवलिजिनानां कवलाहारं-पर शासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निःपिच्छिकाः मयूरपिच्छादिकं न मन्यन्ते । उक्तं च ढाढसीगाथासुःपिच्छण हु सम्मत्तं करगहिए मोरचमरडंवरए । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा विझायव्वो॥" भावार्थ:-गोपुच्छक या काठासंघी स्त्रियोंके लिए छेदोपस्थापनाकी आज्ञा देते है । श्वेताम्बर सर्वत्र भोजन करना उचित मानते है। उनकी समझमें मासभक्षकोंके यहॉ भी प्रासुक भोजन करनेमें दोष नहीं है। इस तरह उन्होंने वर्णाश्रमका लोप किया है ।यापनीय दोनोंको मानते है। रत्नत्रयको पूजते हैं, कल्पसूत्रको वॉचते है. स्त्रियोंको उसी भवमें मोक्ष, केवलियोंको कवलाहार, दूसरे मतवालोको और परिग्रहधारियोंको मोक्ष मानते है। नि:पिच्छिक या माथुरसपी मोरकी पिच्छी रखना आवश्यक नहीं समझते है । जैसा कि 'ढाढसी नामक ग्रंथमें कहा है कि मोर और चमर ( गोपुच्छ) की पिच्छिके आडम्बरमे सम्यक्त्व नहीं है । आत्मा ही आत्माको तारता है। इस लिए आत्माका ही ध्यान करना चाहिए ।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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