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________________ दर्शनसार पूरा करनेकी चिन्ता हुई। पर और कोई उपाय न था, इस कारण उन्होंने भद्रबाहुके समयमें दुर्भिक्षके कारण जो मत चला था, उसको श्वेताम्बर न कहकर 'अर्थ फालक' कह दिया और उसके बहुत वर्षों बाद ( साढ़े चारसो वर्षके बाद) इसी अर्धफालक सम्प्रदायके साधु जिनचन्द्रके सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला दिया। श्वेताम्बरमत जिनचन्द्रके द्वारा वल्लभीमें प्रकट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्षके समय जो मत चला, उसका स्थान कोई दूसरा बतलाया जाय और उसके चलानेवाले भी कोई और करार दिये जाय । इसी कारण अर्धफालककी उत्पत्ति उज्जयिनीमें बतलाई गई और उसके प्रवर्तकोंके लिए स्थूलभद्र आदि नाम चुन लिये गये । स्थूलमद्रकी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उतनी ही प्रसिद्धि है जितनी दिगम्बर सम्प्रदायमें भगवान कुन्दकुन्दकी । इस कारण यह नाम ज्योंका त्यों उठा लिया गया और दूसरे दो नाम नये गढ़ डाले गये । वास्तवमें 'अर्धफालक' नामका कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ । भद्रबाहुचरित्रसे पहलेके किसी भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। यह भट्टारक रत्ननन्दिकी खुदकी 'ईजाद है। श्वेताम्बराचार्य जिनेश्वरसूरिने अपने 'प्रमालक्षण' नामक तर्क। ग्रन्थके अन्तमें श्वेताम्बरोंको आधुनिक बतलानेवाले दिगम्बरोंकी ओरसे उपस्थित की जानेवाली इस गाथाका उल्लेख किया है: छन्वास सएहिं नउत्तरहिं तइया सिद्धिंगयस्स वीरस्स। कंबलियाणं दिही वलहीपुरिए समुप्पण्णा ॥ अर्थात् वीर भगवानके मुक्त होनेके ६०९ वर्ष बाद (विक्रम संवत् १४० में ) वल्लभीपुरमें काम्बलिकोंका या श्वेताम्बरोंका मत उत्पन्न हुआ । मालूम नहीं, यह गाथा किस दिगम्बरी ग्रन्थकी है।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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