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________________ ३६ दर्शनसार । समारूढे पृतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे, सहले वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके । समाप्त पञ्चम्यामवति घरिणी मुझनृपती सिते पक्षे पोपे वुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥ इसका अर्थ यह है कि विक्रमगजाके स्वर्गवास होनेके १०५० वर्ष बीतने पर राजा मुनके राज्यमें यह शास्र समाप्त किया गया। इन्हीं अमितगतिने अपने प्रसिद्ध अन्य धर्मपरीक्षाके, वननेका समय इस प्रकार लिखा है: संवत्सराणां विगते सहस्त्रे ससततो विक्रम पार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समातं जैनेन्द्रधर्मामितयुक्तिशास्त्रम् ॥ अर्थात् विक्रमराजाके संवत्के १०७० वर्ष बीतने पर यह अन्य बनाया गया । इन दोनों श्लोकोंमें विक्रम संवत् ही बतलाया है, परन्तु पहलेमें 'विक्रमके स्वर्गवासका संवत्' और दूसरेमें 'विक्रमराजाका संवत् ' इस तरह लिखा है और यह संभव नहीं कि एक ही ग्रन्थकों अपने एक ग्रन्थमें तो मृत्युका संवत् लिखे और दूसरेमें जन्मका या राज्यका। और जब ये दोनों संवत् एक हैं, तब यह कहा जा सकता है कि विक्रमका संवत्या विक्रमसंवत् लिखनेसे भी उस समय विक्रमकी मृत्युके संवतका बोध होता था।अव रहा प्रश्न यह कि यदि उस समय जन्मका ही या राज्यका ही संवत् लिखा जाता रहा हो, केवल अमितगतिने ही मृत्युका संवत् लिसा हो, तो इसके विरुद्ध क्या प्रमाण है ? "प्रमाण यह है कि राजा मुजका समय सुनिश्चित है। अनेक शिलालेखोंसे और दानपत्रोंसे यह बात निश्चित हो चुकी है कि वे विक्रम संवत् १०३६ से १०७८ तक मालवदेशके राजा रहे है । १०३६ का उनका दानपत्र मिला है । उसके पहले भी वे कितने दिनोंतक राजा रहे, यह मालूम नहीं। १०७८ में कल्याणके राजा तैलिपदेवके द्वारा
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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