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दर्शनसार।
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लिखी जानी चाहिए थी। मालूम नहीं, श्वेताम्बरोंको उन्होंने मस्करसेि पहले और वैनायिकोंको बौद्धोंके बाद क्यों लिखा है । संभव है, 'एयंतं विवरीयं' आदि गाथाके क्रमको ठीक रखनेके लिए ऐसा किया गया हो।
४ इस पुस्तकका पाठ तीन प्रतियोंके आधारसे मुद्रित किया गया है। क प्रति श्रीमान् सेठ माणिकचन्द पानाचन्दजीके भण्डारकी है, जिस पर लिपिसमय नहीं लिखा है। इस पर कुछ टिप्पणियाँ भी दी हुई है। यह अधिक शुद्ध नहीं है। ख प्रति बम्बईके तेरहपंथी मन्दिरके कमसे कम ५०० वर्ष पहलेके लिखे हुए एक गुटके पर लिखी हुई है, जो प्रायः बहुत ही शुद्ध है । अवश्य ही इसमें कई जगह काष्टासंघकी जगह हड़ताल लगा-लगाकर मूलसंघ या मयूरसंघ लिख दिया है और यह करतूत काष्ठासंघी भट्टारक श्रीमान श्रीभूषणजीकी है जो वि० संवत् १६३६ में अहमदाबादकी गद्दी पर विराजमान थे। इस विषयमें हम एक लेख जैनहितैषीके ५.भागके ८ वें अंकमें प्रकाशित कर चुके हैं। तीसरी ग प्रति रायल एशियाटिक सुसाइटी (वाम्बे बेंच ) जरनलके नं. १५ जिल्द १८ में छपी हुई है। यह बहुत ही अशुद्ध है । फिर भी इससे संशोधनमें सहायता मिली है।।
५ इसमें सब मिलाकर १० मतोंकी उत्पत्ति बतलाई गई है । वे मत ये हैं-१ बौद्ध, २श्वेताम्बर, ३ ब्राह्मणमत, ४ वैनयिक मत, ५ मंखलि-पूरणका मत, ६ द्राविडसंघ,७ यापनीय सघ ८ काष्ठासंघ, ९ माथुरसंघ, और १० भिल्लक संघ । इनमेंसे पहले पाँच तो क्रमसे एकान्त, संशय, विपरीत, विनयज, और अज्ञान इन पाँच मिथ्यात्वोंके भीतर बतलाये गये हैं, पर शेष पॉचको इन पॉच मिथ्यात्वोंमेंसे किसमें गिना जाय, सो नहीं मालूम होता । ३८ वीं गाथामें काष्ठासंघके प्रवर्तक कुमारसेनको 'समयमिच्छत्तो' या समयमिथ्थाती विशेषण दिया है;