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________________ दर्शनसार । सर्वेषु च तीर्थेषु च वैनयिकानां समुद्भवः अस्ति । सनटा मुण्डितशीर्षाः शिखिनो नग्नाश्च कियन्तश्च ॥ १८ ॥ अर्थ-सारे ही तीर्थों में अर्थात् सभी तीर्थक्के वारेमें वैनयिकोंका उद्भव होता रहा है। उनमें कोई जटाधारी, कोई मुडे, काई शिखाधारी और कोई नम रहे है। दुढे गुणवंते वि य समया भत्तीय सव्वदेवाणं । णमणं दंडव्व जणे परिकलियं तेहि मूढेहिं ॥ १९ ॥ दुष्टे गुणवति अपि च समया भक्तिश्च सर्वदेवेभ्यः । नमनं दण्ड इव जने परिकलितं तैमूरैः ॥ १९ ॥ अर्थ-चाहे दुष्ट हो चाहे गुणवान् हो, दोनोंमें समानतासे भक्ति करना और सारे ही देवोंको दण्डके समान आड़े पड़कर ( साष्टांग )नमन करना, इस प्रकारके सिद्धान्तको उन मूखोने लोगोंमें चलाया ।* ____ अज्ञानमतकी उत्पत्ति । सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससंघगणिसीसो । मक्कडिपूरणसाहू अण्णाणं मासए लोए ॥ २० ॥ श्रीवीरनाथतीर्थे वहुश्रुतः पार्श्वसंघगणिशिष्यः । मस्करि-पूरनसाधुः अज्ञानं भाषते लोके ॥ २० ॥ अर्थ-महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थकरके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करी पूरन नामका साधु था। उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। * विनय करनेसे या भक्ति करनेसे मुक्ति होती है, यही इस मतका सिद्धान्त जान पड़ता है।
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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