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________________ दर्शनसार । अर्थ-इसी प्रकार और भी आगमविरुद्ध बातोंसे दृषित मिथ्या शास्त्र रचकर वह पहले नरकको गया। विपरीतमतकी उत्पत्ति । सुब्बयतित्थे उज्झो खीरकदंबुत्ति सुद्धसम्मत्तो। सीसो तस्स य दुढो पुचो विय पब्बओ वक्को॥१६॥ सुव्रततीर्थे उपाध्यायः क्षीरकदम्ब इति शुद्धसम्यक्त्वः । शिप्यः तस्य च दुष्टः पुत्रोपि च पर्वतः वक्रः ॥ १६ ॥ अर्थ-बावीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतस्वामीके समयमें एक क्षीरकदम्ब नामका उपाध्याय था । वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उसका (राजा वसु नामका ) शिष्य दुष्ट था और पर्वत नामका पुत्र वक्र था। विवरीयमय किच्चा विणासियं सञ्चसंजमं लोए । तत्तो पत्ता सब्वे सत्तमणरयं महाघोरं ॥ १७ ॥ विपरीतमतं कृत्वा विनाशितः सत्यसंयमो लोके । ततः प्राप्ता. सर्वे सप्तमनरकं महाघोरम् ॥ १७ ॥ अर्थ-उन्होंने विपरीत मत बनाकर संसारमें जो सच्चा संयम जीवदया ) था, उसको नष्ट कर दिया और इसके फलसे वे सब (पर्वतकी माता आदि भी) घोर सातवें नरकमें जा पड़े। वैनयिकोंकी उत्पत्ति। सब्वेसु य तित्थेसु य वेणझ्याणं समुन्भवो अस्थि । सजडा मुंडियसीसा सिहिणो णंगा य केई व ॥१८॥
SR No.010625
Book TitleDarshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1918
Total Pages68
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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