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दूसरा अध्याय पालि साहित्य का विस्तार, वर्गीकरण
और काल-क्रम
पालि साहित्य का उद्भव और विकास
जिस तेजस्वी व्यक्तित्व से संसार ने सब से पहले मनुष्यता सीखी; जिसकी दीप्ति से भारत के निश्चयात्मक इतिहास पर सर्व प्रथम आलोक पड़ा, उसी से पालि साहित्य का भी उदय हुआ। तथागत की सम्यक् सम्बोधि ही पालि-साहित्य का आधार है । जिस दिन भगवान् ने बुद्धत्व प्राप्त किया और जिस दिन उन्होंने परिनिर्वाण में प्रवेश किया, उसके बीच उन्होंने जो कुछ, जहाँ कहीं, जिस किसी से कहा, उसी के संग्रह का प्रयत्न पालि-त्रिपिटक में किया गया है । त्रिपिटक का अर्थ है तीन पिटक या तीन पिटारियाँ । इन तीन पिटारियों में बुद्ध-वचन संगृहीत किये गये हैं, जो कालानुक्रम से आज के युग को भी प्राप्त हैं । उपयुक्त तीन पिटकों या पिटारियों के नाम हैं, सुत्त-पिटक, विनय-पिटक और अभिधम्म-पिटक । भगवान् बद्ध ने जो कुछ अपने जीवन-काल में कहा या सोचा, वह सभी त्रिपिटक में संगहीत है, ऐसा दावा त्रिपिटक का नहीं है। कौन जानता है कि भगवान् के अन्तर्मन के कुछ उद्गार केवल उरुवेला की पहाड़ियों ने ही सुने, नेरंजरा की शान्त धारा ने ही धारण किये ! फिर सहस्रों ने जो कुछ सुना, उन सब ने ही आ आकर त्रिपिटक में उसे संगृहीत करवा दिया हो, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। अतः ऐतिहासिक रूप से बुद्ध के मुख से निकले हुए अनेक ऐसे भी वचन हो सकते हैं, जो त्रिपिटक में हमें नहीं मिलते और जिन्हें अन्यत्र हम कहीं पा भी नहीं सकते। इसी प्रकार त्रिपिटक में जो कुछ सुरक्षित है, वह सभी बिना किसी अपवाद के बुद्ध-वचन है, ऐसा भी नहीं माना जा सकता। 'विभज्यवादी' (विभाग कर बतलाने वाला, बुद्ध) को समझने के लिये हमें सब प्रकार 'विभज्यवादी' ही होना पड़ेगा। हाँ, यह आश्वासन अवश्य प्राप्त है कि पालि त्रिपिटक में विश्वस्ततम रूप से बुद्धवचन अपने मौलिक रूप में सुरक्षित हैं, जैसा कि नीचे के विवरण से स्पष्ट होगा।