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________________ रूप से होना चाहिये, पालि में उसका प्रयोग प्रायः विकल्प से ही होता है । संस्कृत के दम गण पालि में केवल सात रह गये हैं। इसी प्रकार संस्कृत के दम लकारों के स्थान पर पालि में केवल आठ लकार हैं। लिट् लकार का प्रयोग पालि में नहीं के बराबर होता है । लङ् और लुङ वहाँ भूतकाल द्योतित करने के लिये हैं, किन्तु इनमें भी प्रायः लुङ् का ही प्रयोग पालि में अधिकता से होता है । इस प्रकार संस्कृत की अपेक्षा सरलीकरण की प्रवृत्ति पालि में अधिकता से पाई जाती है। वैदिक भाषा से प्राप्त रूपों की अनेकता पालि में सुरक्षित है, जब कि मंस्कृत ने उसे व्यवस्थित कर उसमें एकरूपताला दी है। वेद की भाषा में पुल्लिङ्ग अकारात शब्दों के बहुवचन के रूप में 'असक.प्रत्यय भी लगता था। इस प्रकार 'देव' शब्द का प्रथमा बहुवचन का रूप वहाँ 'देवास:' मिलता है। संस्कृत ने इस रूप को ग्रहण नहीं किया है। किन्तु पालि में 'देवासे' 'धम्मासे' 'बुद्धासे' जैसे प्रयोगों में वह सुरक्षित है। इसी प्रकार 'देव' शब्द का ततीया बहुवचन का रूप वैदिक भाषा में 'देवेभिः' है। पालि में यह 'देवेभि' के रूप में सुरक्षित है। संस्कृत ने इस रूप को भी ग्रहण नहीं किया है। वैदिक भाषा में प्रायः चतुर्थी विभक्ति के लिये षष्ठी का प्रयोग और षष्ठी विभक्ति के लिये चतुर्थी का प्रयोग पाया जाता है । संस्कृत ने इसे निश्चित नियम में वाँध कर रोक दिया है। किन्तु पालि में यह व्यत्यय ब्राह्मणस्म धनं ददाति' ब्राह्मणस्स मिस्मों जैसे प्रयोगो में मिलता है। निश्चयत: पालि में चतुर्थी और षष्ठी विभक्तियों के रूप ही प्रायः समान होते हैं। वैदिक भाषा में 'गो' और 'पति' शब्दों के षष्ठी बहुवचन और तृतीया एक वचन के रूप क्रमशः 'गोनाम' और 'पतिना' होते थे। पालि में ये क्रमश: 'गोनं' या 'गुन्नं' तथा 'पतिना' के रूप में सुरक्षित हैं। किन्तु संस्कृत ने इन्हें भी स्वीकार नहीं किया है। इसी प्रकार वैदिक भाषा में नपुंसक लिंग की जगह बहुधा पुल्लिग का भी प्रयोग होता था । संस्कृत में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। किन्तु पालि में बहुधा ऐसा हो जाता है। उदाहरणत: 'फल' शब्द के प्रथमा के बहुवचन में 'फला' और 'फलानि' दोनों ही रूप होते हैं। यही प्रवृत्ति क्रिया-रूपों में भी दृष्टिगोचर होती है । वैदिक भाषा में आत्मनेपद और परस्मैपद का भेद उतना स्पष्ट नहीं था। वहां 'इच्छति"इच्छते' 'युध्यति"युध्यते' जैमे दोनों प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं। पालि मेंयह प्रवृत्ति समान रूप मे ही दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत में आत्मनपद और परम्भपद का अधिक निश्चित विधान कर दिया गया है। 'श्रु' धातु का वैदिक भाषा में अनुज्ञा-काल का मध्यम-पुरुष का एकवचन का रूप 'शृणुधी' और अनुज्ञा-काल
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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