________________
हो थे । इन्होंने विनय-साहित्य पर भी खुद्दक-मिक्खा' (क्षुद्रक-शिक्षा-रचयिता भिनु धर्मत्री-धम्मसिरि) के टीका स्वरूप 'ग्दुकमिवखा-टीका' लिखी थी। 'संबंध-चिन्ता' पर एक टीका भी पाई जाती है, किन्तु उसके लेखक के नाम
और काल का पता नहीं है । (५) स्थविर सद्धर्मश्री (मद्धम्मसिरि) विरचित 'सइत्थभेदचिता' (शब्दार्थभेदचिन्ता) । यह ग्रन्थ बरमा में १० वीं शताब्दी के अंतिम भाग में लिखा गया। इस पर भी एक अज्ञात लेखक की टोका मिलती है। (६) स्थविर बुद्धप्रिय दीपंकर विरचित 'रूप-निद्धि' या 'पद-रूप-मिद्धि' । स्थविर बुद्धप्रिय दीपंकर ने इस ग्रन्थ के अन्त में अपना परिचय देते हुए अपने को सारिपुत्त (मिहली भिक्षु) का शिप्य कहा था । 'पज्जमधु' के भी यही रचयिता है । इनका काल इस प्रकार तेरहवी शताब्दी का अंतिम भाग ही है । यह ग्रन्थ सात भागों में विभक्त है और कुछ अल्प परिवर्तनों के साथ कच्चान-व्याकरण का ही रूपान्तर मात्र है । 'रूप-मिद्धि' पर भी एक टीका लिखी गई और सिंहली भाषा ते उमका रूपान्तर भी किया नया ! (७) बालावतार-व्याकरण----यह व्याकरण विशेषतः बग्मा और म्याम में बड़ा लोकप्रिय है। लंका में इसके कई संस्करण निकले है। यह भी कच्चान व्याकरण के आधार पर ही लिखा गया है । यह ग्रन्थ 'धम्मकिन (धर्म कीर्ति) की रचना मानी जाती है । यह वम्मकिनि (धर्मकीर्ति) डा० गायगर के मतानुसार 'नद्धम्म संगह' के रचयिता धम्मकित्ति महासामि' (धर्मकीर्ति महास्वामी) ही है, जिनका जीवन-काल चौदहवीं शताब्दी का उत्तर भाग है। गन्धवंस के वर्णनानुसार यह वाचिस्सर (वागीश्वर) की रचना है३ । वाचिस्सर सिंहली भिक्षु सारिपुन के गिप्यों में से थे। उनका जीवन-काल निश्चित रूप से बारहवीं शताब्दी का उत्तर भाग और तेरहवीं शताब्दी का प्रारंभिक भाग है। इन प्रकार उनकी रचना मानने पर 'बालावतार' का रचना-काल पी
१. विशेषतः श्री धर्माराम द्वारा सम्पादित, पलियगोड, १९०२; वालावतार, टोका-सहित, सुमंगल महास्थविर द्वारा सम्पादित, कोलम्बो १८९३; देखिये
सुभूति : नाममाला, पृष्ठ २४ (भूमिका) २. पालि लिटरेचर एंड लेंग्वेज, पृष्ठ ४५, ५१ । ३. पृष्ठ ६२, ७१ (जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी १८८६ में सम्पादित
संस्करण)