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( ५९२ ) एवं विद्वत्ता -प्रदर्शक प्रवृत्ति ही है । महायानी प्रभाव भी कहीं कहीं उपलक्षित है । बुद्धरक्षित ने अपने इस ग्रन्थ पर एक टीका भी लिखी थी। 'जिनालंकार' नाम का एक अन्य ग्रन्थ भी है, जिसकी रचना प्रसिद्ध अट्ठकथाकार बुद्धदत्त (चौथी गताब्दी ईसवी) ने की थी। प्रस्तुत 'जिनालंकार' से वह भिन्न है । 'गन्धवंस' के वर्णनानुसार बुद्धदत्त द्वारा लिखित 'जिनालंकार' पर बुद्धरक्षित ने एक टीका भी लिखी थी।' कुछ भी हो, हमें उपर्युक्त दोनों रचनाओं को मिलाने की गलती नहीं करनी चाहिये। जिनचरित ___'जिनालंकार' के समान 'जिनचरित' का भी विषय बुद्ध-जीवनी का वर्णन करता है। 'जिनालंकार' में, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, सम्बोधि प्राप्ति तक वुद्ध-जीवनी का वर्णन किया गया है। किंतु 'जिनचरित' में भगवान् बुद्ध के उपदेश-कार्य का भी वर्णन किया गया है और उनके ४५ वर्षावासों का ब्यौरवार वर्णन किया गया है। जहाँ तक विषय-वस्तु का सम्बन्ध है, 'जिनचरित' में कोई नवीनता नहीं है । बुद्ध-जीवन के विषय में उसने कोई नई बात हमें नहीं बताई है। उसके सारे वर्णन जातक-निदानकथा पर आधारित हैं । एक हद तक तो वह जातक निदान-कथा का छन्दोबद्ध संस्करण ही जान पड़ता है। चार्ल्स डुरोइसिल का यह कथन ठीक है कि जहाँ कवि इस अन्धानुकरण से बच सका है और उसने अपनी प्रेरणा से लिखा है, वहीं उसके काव्य में कुछ रसात्मकता भी आ सकी है। यद्यपि काव्य-गुणों की दृष्टि से 'जिनचरित' की 'बुद्ध-चरित' से कोई तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी यह कहना ठीक है कि पालि-साहित्य में 'जिनचरित' का वही स्थान है जो बौद्ध संस्कृत साहित्य में 'वुद्धचरित' का। 'जिन
१. पृष्ठ ६९, ७२ (मिनयेफ द्वारा सम्पादित, जर्नल ऑव पालि टेक्स्ट सोसायटी,
१८८६) २. डबल्यू० एच० डी० राउत द्वारा जर्नल ऑव पालि टैक्स्ट सोसायटी, १९०४०५ में अंग्रेजी अनुवाद-सहित सम्पादित । चार्ल्स डुरोइसिल द्वारा भी अंग्रेजी
अनुवाद सहित रोमन लिपि में सम्पादित, रंगून १९०६ । ३. जिनचरित (चार्ल्स डुरोइसिल द्वारा सम्पादित) पृष्ठ १-२ (भूमिका)