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( ५९१ ) किसी भी अवस्था में इतना दृढ़ और अन्तिम नहीं हुआ करता कि उसके आधार पर हम किसी ग्रन्थ की तिथि असंदिग्ध रूप से निश्चित कर सकें । अतः विंटरनित्ज़ द्वारा निश्चित बारहवीं शताब्दी ईसवी भी 'तेलकटाहगाथा' की प्रामाणिक रचना-तिथि नहीं मानी जा सकती। विंटरनित्ज़ की स्थापना केवल अनुमान पर आश्रित है । जब तक कोई और महत्वपूर्ण वाह्य साक्ष्य न मिले, 'तेलकटाहगाथा' के रचयिता और रचना-काल का सुनिश्चित ज्ञान हमारे लिये अज्ञात ही रहेगा। जिनालङ्कार'
पालि काव्य-साहित्य की उसी कोटि की रचना है जिस कोटि के संस्कृत मे किरातार्जुनीय और शिशुपाल-वध जैसे महाकाव्य हैं । काव्य-चमत्कार की प्रवृत्ति यहाँ बहुत अधिक उपलक्षित होती है और शैली में भी पर्याप्त कृत्रिमता है । 'जिनालंकार' की रचना बारहवीं शताब्दी में बुद्धरक्षित (बुद्धरक्खित) नामक भिक्षु के द्वारा हुई । ग्रन्थ का विषय ज्ञान-प्राप्ति तक बुद्ध-जीवनी का वर्णन करना है। ग्रन्थ के अन्त में लेखक ने उसका रचना-काल बुद्ध-परिनिर्वाण से १७०० वर्ष बाद दिया है। इसका अर्थ यह है कि इसकी रचना ११५६ ई० में हुई। यह तिथि विद्वानों को मान्य है । उत्तरकालीन संस्कृत काव्यों की शैली का इस ग्रन्थ पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। एक पद्य में सिर्फ 'न्' व्यंजन का ही प्रयोग किया गया है। यह प्रवृत्ति किरातार्जुनीय जैसे संस्कृत-काव्यों में भी दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार के चमत्कारमय प्रयत्न चाहे भाषा सम्बन्धी विद्वत्ता के परिणाम भले ही हों, किन्तु संस्कृत काव्य-विवेचकों ने उन्हें 'अधम काव्य' ही माना है । यही बात हम 'जिनालंकार की इस प्रवृत्ति के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में २५० गाथाएँ हैं । ग्रन्थ की मुख्य विशेषता उसकी कृत्रिम शैली, पौराणिक अतिरंजनामयी वर्णन प्रणाली
१. जेम्स ग्रे द्वारा अंग्रेजी अनुवाद सहित रोमन लिपि में सम्पादित (लन्दन १८९४)। सिंहली लिपि में इस ग्रन्थ का दीपंकर और धम्मपाल का उत्कृष्ट
संस्करण (गैले, १९००) उपलब्ध है। . २. पृष्ठ २७१ (ग्रे का संस्करण) , देखिये गन्धवंस, पृष्ठ ७२ (मिनयेफ द्वारा
सम्पादित); सद्धम्मसंगह ९।२१ (सद्धानन्द द्वारा सम्पादित)