________________
( ३७ ) स्थान यहाँ 'ळ्' ने ले लिया है, इसी प्रकार 'द' का स्थान 'ल्ह'ने । मिथ्या-सादृश्य के कारण 'ळ' का प्रयोग 'ल' के स्थान पर भी देखा जाता है। (६)स्वतंत्र स्थिति में 'ह' प्राणध्वनि व्यंजन है, किन्तु य, र, ल, व् या अनुनासिक से संयुक्त होने पर इसका उच्चारण एक विशेष प्रकार से होता है, जिसे पालि वैय्याकरणों ने 'ओरम' या 'हृदय से उत्पन्न' कहा है। इस संक्षिप्त निर्देश के बाद अब उन ध्वनिपरिवर्तनों का उल्लेख करना आवश्यक होगा, जो संस्कृत की तुलना में पालि में होते हैं। पहले हम स्वर-परिवर्तनों को लेंगे,बाद में व्यंजन-सम्बन्धी परिवर्तनों को। स्वर-परिवर्तनों में भी क्रमशः ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर, संयुक्त स्वर, विसर्ग आदि का विवेचन किया जायगा। इसी प्रकार व्यंजन-सम्बन्धी परिवर्तनों में असंयुक्त
और संयुक्त व्यंजनों की दृष्टि से शब्द में उनकी स्थिति के अनुसार विवेचन करेंगे, यथा आदि-व्यंजन, मध्य-व्यंजन, अन्त्य-व्यंजन, आदि। इसके साथ ही स्वर और व्यंजन-सम्बन्धी कुछ विशेष ध्वनि-परिवर्तनों का दिग्दर्शन करना भी आवश्यक होगा। स्वर-परिवर्तन
ह्रस्व स्वर (अ इ, उ, ए, ओ) १. साधारणतया संस्कृत ह्रस्व स्वर अ, इ, उ, पालि (एवं प्राकृतों) में सुरक्षित रहते हैं। उदाहरण
संस्कृत वधूः
(प्राकृत वहू) अग्नि अग्गि
प्राकृत में पालि के अर्थ अट्ठ
समान ही रूप प्रिय
पिय रूक्ष
रुक्खो ) मुखम् मुखं
(प्राकृत मुहं) २ यदि संस्कृत में असंयुक्त व्यंजन से पहले होता है, तो पालि में उसका कहीं कहीं ए (हस्व ए) हो जाता है।
उदाहरण संस्कृत
पालि फल्ग (सारहीन) फेग्ग