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________________ ( ५३५ ) को अधिमोक्ष, उत्साह करने वाले को वीर्य, विषयों में आनन्द लेने वाले को प्रीति और उनकी इच्छा करने वाले चेतसिक धर्मों को 'छन्द' कहते हैं। पूर्वोक्त १४ अकुशल चेतसिक इस प्रकार हैं, मोह, निर्लज्जता (अह्री), अ-पापभयता (अनत्रपा), औद्धत्य, लोभ (मिथ्या-) दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, पश्चात्ताप-कारी कृत्य (कौकृत्य), स्त्यान (मन को भारी करनेवाला) मृद्ध (चेतसिकों को भारी करनेवाला) और विचिकित्सा (संगय) । शोभन-चित्त २५ हैं, यथा (१) श्रद्धा (२) स्मृति, (३) ह्री, (४) अपत्रपा (पाप-कर्म में भय होना) (५) अलोभ, (६) अद्वेष (७) मध्यस्थता (८) कायप्रश्रब्धि (कायिक शान्ति) (९) चित्त-प्रश्रब्धि (चित्त-शान्ति) (१०) कायलघुता (११) चित्त लघुता (१२) काय-मृदुता (१३) चित्त-मृदुता (१४) (१४) कार्य कर्मज्ञता (१५) चित्त-कर्मज्ञता (१६) काय प्रागुण्य (काया का समर्थ भाव) (१७) चित्त प्रागुण्य (चिन का समर्थ भाव) (१८) काय ऋजुता (१७) चित्त-ऋजुता (२०) सम्यक् वाणी (२१) सम्यक् कर्मान्त, (२२) सम्यक् आजीव । (इन अंतिम तीन अर्थात् सम्यक् वाणी, सम्यक् कर्मान्त और सम्यक आजीव को 'धम्म संगणि' में 'तीन विरतियां' कह कर पुकारा गया है ।) (२३) करुणा (२४) मुदिता और (२५) अमोह (प्रज्ञा)। इस प्रकार ५२ चेतसिक धर्मों की कुशल, अकुशल और अव्याकृत कर्ममयी व्याख्या अभिधम्मत्थ संगह में की गई है। किन्तु यह सब तो दिग्दर्शन मात्र है और बहुत कुछ अस्पष्ट भी। अभी तो हमने केवल 'सहेतुक चित्त' के इन तीन प्रकारों यथा 'कुगल' 'अकुशल' और 'अव्याकृत' चेतसिकों के साथ संबंध को व्यक्त किया है। किन्तु जिस गहनता और मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता एवं अन्तदष्टि के साथ इनका विश्लेषण और व्याख्यान 'अभिधम्मत्थसंगह' में किया गया है उसकी तो यह एक प्रतिच्छाया भी नहीं है। कहाँ चित्त के चार प्रकार के वर्गीकरण ,कामावचर, रूपावचर, अरूपावचर और लोकोत्तर ! कहां फिर इनमें भी कामावचर-चित्त के ५४ प्रकार ! कहां फिर उनकी भी व्याख्या और उसमें भी यह निर्णय कि इनमें से १२ अकुशल चित्त (जिसमें से भी १. देखिये पाँचवें अध्याय में अभिधम्म-पिटक के अन्तर्गत धम्मसंगणि का विवेचन।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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