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उनके द्वारा किया हुआ गंगा का विवरण, सब यही दिखलाते हैं कि जिस वन-दाह का उन्होंने वर्णन किया है वह भी दक्षिण की वस्तु है और जिस गंगा का उन्होंने वर्णन किया है वह उत्तर भारत की गंगा न होकर दक्षिण भारत की महावली गंगा है । इस प्रकार आन्तरिक साक्ष्य के आधार आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि आचार्य बुद्धघोष उत्तरी भारत की भौगोलिक परिस्थिति से परिचित नहीं थे, अतः वे वहां के निवासी नहीं हो सकते । आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने उस बरमी परम्परा को प्रामाणिक माना है जो बुद्धघोष को दक्षिण भारत का ब्राह्मण मानने की पक्षपातिनी है । 'विसुद्ध-मग्ग' के निगमन (उपनंहार) में अपना परिचय देते हुए आचार्य वुद्धघोष ने अत्यन्त निर्वयक्तिकता पूर्वक कहा है “बुद्धघोसो ति गरूहि गहित नामधेय्येन थेरेन मोरण्डखेटकवत्तब्बेन कतो विसुद्धिमग्गो नाम" (बड़ों के द्वारा 'बुद्धघोष' नाम दिये हुए, मोरंड खेटक के निवासी, स्थविर (बुद्धघोष) ने इस विशुद्धि-मार्ग को लिखा ।) इसके आधार पर आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी ने यह मत प्रकट किया है कि आचार्य वुद्धघोप दक्षिण-भारत के मोरण्डखेटक (मोरंड नामक खेटक, खेड़ा) नामक गाँव के निवासी थे। आचार्य बुद्धघोष कुछ दिन, जैसा उन्होंने अपनी मज्झिमनिकया की अट्ठकथा में कहा है मयूरसुत्तपट्टन या मयूररूपपट्टन में भी रहे थे
और वहीं बुद्धमित्र नामक स्थविर के साथ रहते हुए उनकी प्रार्थना पर इस अट्टकथा को लिखा था ।' आचार्य धर्मानन्द कोसम्बी की धारणा है कि यह मयूरमुत्तपट्टन या मयूररूपपट्टन कही तेलग प्रदेश में था। इसी प्रकार आचार्य बुद्धघोप कांचीपुर आदि दक्षिण के नगरों में भी रहे थे, जैसा उनके अंगुत्तर-निकाय की अट्टकथा के अन्त में इस वाक्य से प्रकट होता है--
१. आयाचितो सुमतिना थेरेन भदन्त-बुद्धमित्तेन । पुब्बे मयूरसुत्तपट्टनम्हि सद्धि वसन्तेन ॥ यमहं पपञ्चसूदनिमट्ठकथं कातुमारद्धो॥