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( ५०० ) और अत्यन्त मूल्यवान् सामग्री हाथ लग सकती है, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व भी अल्प न होगा।
प्राचीन सिंहली अट्ठकथाओं और पुराने आचार्यों के अतिरिक्त आचार्य बुद्धघोष ने अपने पूर्वगामी सभी स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण की है । 'दीपवंस' और 'मिलिन्द पह' तो प्राम्बुद्धघोषकालीन रचनाएँ हैं ही, बुद्ध घोष ने अपनी व्याख्याओं के लिये सब से अधिक मूल्यवान् सामग्री तो बुद्ध और उनके प्रारम्भिक शिष्यों के वचनों के स्वकीय मन्यन से ही प्राप्त की है । इसी में उनकी मौलिकता भी है । चूंकि इसमें उन्हें इतनी अधिक सफलता मिली है, इसीलिये पालि-साहित्य में उनका दान अमर हो गया है । स्वयं त्रिपिटक-साहित्य में ऐसी अमूल्य सामग्री भरी पड़ी है, जिससे बुद्धघोष जैसे अगाध विद्वान् चाहे जितनी सहायता ले सकते थे । स्वयं भगवान् बुद्ध के सडायतन विभंग (मज्झिम. ३।४१७) अरण विभंग (मझिम. ३।४।९) धातु विभंग (मज्झिम. ३।४।१०) एवं दक्खिणाविभंग (मज्झिम. ३।४।१२) आदि सुत्तों में निहित व्याख्यात्मक उपदेश, तथा उनके प्रधान शिष्यों यथा सारिपुत्र, महाकात्यायन, महाकोट्ठित आदि के व्याख्यापरक निर्वचन, अभिधम्म-पिटक और उसके अन्तर्गत विशेषत: 'कथावत्थु' की विवेचन- प्रणाली, ये सभी स्रोत और साधन बुद्धघोष के लिये खुले पड़े थे, जिनका पूरा उपयोग कर उन्होंने पालि-साहित्य में उस विशाल अट्ठकथा-साहित्य का प्रवर्तन किया, जो अपनी विशालता और गम्भीरता में भारतीय साहित्य में उपलब्ध समान कोटि के प्रत्येक साहित्य से बढ़कर है। अटकथा-साहित्य की संस्कृत भाष्य और टीकाओं से तुलनाअट्ठकथाओं की कुछ सामान्य विशेषताएँ
वास्तव में पालि के अट्ठकथा-साहित्य के समान भारतीय भाष्य-साहित्य में अन्य कुछ नही है । संस्कृत में भाष्य और टीकाएँ अवश्य हैं, किन्तु उनकी तुलना सर्वांश में पालि अट्ठकथाओं से नहीं की जा सकती। भाष्य की परिभाषा संस्कृत में इस प्रकार की गई है--
"सूत्रार्थों वर्ण्यते यत्र वाक्यः सूत्रानुसारिभिः । स्वपदानि च वय॑न्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ।" शब्द-कल्पद्रुम