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पालि में भी 'कातवे' 'गन्तवे' जैसे रूपों में यह सुरक्षित है। संस्कृत ने इस प्रयोग को छोड़ दिया है। इसी प्रकार अन्य अनेक शब्दों में हम यह प्रवृत्ति देखते हैं । संस्कृत 'आम्र' शब्द का वैदिक रूप 'आम्' है । पालि में यह 'अम्ब' है । पालि ने 'ब्' को रख लिया है ।" वैदिक अकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के प्रथमा बहुवचन के रूप में 'असुक' प्रत्यय लग कर 'देवास:' जैसा रूप बनता था । पालि में भी यह 'देवासे' 'धम्मासे' 'बुद्धासे' जैसे रूपों में सुरक्षित है। संस्कृत ने इन रूपों को ग्रहण नहीं किया है ।
पालि और संस्कृत
पालि और संस्कृत के ऐतिहासिक सम्बन्ध का विवेचन हम पहले कर चुके है । दोनों ही मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएँ हैं। दोनों ही समान स्रोत वैदिक भाषा से उद्भूत हुई हैं । किन्तु जैसा कबीर ने पन्द्रहवीं शताब्दी में लोकभाषा हिन्दी का संस्कृत से मिलान करते हुए संस्कृत को 'कूपजल' कह कर (हिन्दी) 'भाषा' को 'बहता नीर कहा था, वही बात हम पालि के विषय में भी कह सकते हैं । पालि वह बहता हुआ नीर था जो वैदिक काल से लेकर अप्रतिहत रूप से मध्य-मंडल में प्रवाहित होता हुआ चला आ रहा था। इसके विपरीत संस्कृत वह बद्ध महासरोवर था, जिसमें समस्त आर्य ज्ञान-विज्ञान अनुमापित कर दिया गया था। एक की गति अवरुद्ध थी, दूसरे में आवर्त -विवर्तों की लहरें सतत चलती रहीं । परिणामतः प्राकृतों की सीमा पार कर, अपभ्रंग के नाना विवर्त धारण कर, वह आज हमारी अनेक प्रान्तीय बोलियों के रूप में समाविष्ट हो गई है । संस्कृत 'पुराण युवती' है। पुरानी होते हुए भी वह सदा अपने मौलिक अभिराम रूप को धारण करती है। उसके जरा-मरण नहीं। इसके विपरीत पालि के कुमारी, युवती, वृद्धा स्वरुप हमें दृष्टिगोचर होते हैं । अन्त में वह अपनी सन्तानों के रूप में अपने को खो भी चुकी है। पालि त्रिपिटक में उसके बाल्य और तारुण्य का सामान्यतः दिग्दर्शन होता है, अनुपालि-साहित्य में सामान्यतः उसके वृद्धत्व का। उसके ये विभिन्न भाव एक ही व्यक्तित्व के विकार हैं, जो उसने काल और स्थान के भेद से ग्रहण किये हैं। जिन भाषा तत्व -विदों ने उसके इस रहस्य
१. देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज़, पृष्ठ ६५५-५६ ( भिक्षु सिद्धार्थ का पालिभाषा सम्बन्धी निबन्ध)