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( ३८१ ) (ग) मोह-मूलक दो अकुशल-चित्त १. (अज्ञानमय) उपेक्षा के साथ, सन्देह-युक्त ( मनकी मोह-युक्त अवस्था में २. उपेक्षा के साथ ,उद्धतता से युक्त २ असांस्कारिक या ससांस्कारिक
। होने का सवाल ही नहीं उठता।
३. अव्याकता धम्मा धम्मसंगणि की तीसरी मुख्य जिज्ञासा है “कतमे धम्मा अव्याकता"अर्थात् कौन से धर्म अव्याकृत हैं ? इसके उत्तर का निष्कर्ष प्रकार है
अ-विपाक-चित्त (क) आठ कुशल विपाक-चित्त--अव्याकृत चित्त के दो भेद हैं, विपाकचित्त और क्रिया-चित्त, यह हम पहले देख चुके हैं । विपाक-चित्त पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम-स्वरूप होते हैं। पूर्व-जन्म के शुभ या अशुभ-कर्मों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने के कारण उनके कुशल-विपाक-चित्त और अकुशलविपाक-चित्त ये दो स्वरूप होते हैं । आठ कुशल विपाक-चित्त, जो अनुकूल पदार्थों के साथ इन्द्रियों के संनिकर्ष होने के कारण उत्पन्न होते हैं, ये हैं-- १. चक्षु-विज्ञान
उपेक्षा (न-सुख-न-दुःख) से युक्त २. श्रोत्र-विज्ञान ३. ध्राण-विज्ञान ४. जिह्वा-विज्ञान ५. काय-विज्ञान
सुख या सौमनस्य से युक्त ६. मनोधातु
उपेक्षा से युक्त ७. मनो विज्ञान-धातु
उपेक्षा से युक्त ८. मनो-विज्ञान-धातु
सख या सौमनस्य से अक्त संख्या ६, ७, ८ के कुशल विपाक चित्तों को क्रमशः 'सम्पटिच्छन्न' और 'सन्तीरण' (७, ८) 'अभिधम्मत्थ' संगह में कहा गया है । सम्पटिच्छन्न (सम्प्रतिच्छन्न) का अर्थ है ग्रहणात्मक विज्ञान और 'सन्तीरण' (सन्तीर्ण) का अर्थ है अनुसन्धानात्मक विज्ञान । चक्षुरादि इन्द्रियों के साथ उनके विषयों