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का सहारा लेकर किया जा सकता है, जैसे यह तो मेरा कर्तव्य ही है आदि (यापि भावना तो उसमें लोभ की ही रहती है) तो उस दशा में यह दुष्टिगत-युक्त (दिट्टिगत-सम्पयुत्त) कहलायेगा । यदि इस प्रकार की मिथ्या-धारणा का सहारा नहीं लिया गया है तो वह दृष्टिगत-विप्रयुक्त या मिथ्या-धारणा से मुक्त (दिगित-विप्पयुत्त) कहलायगा । इसी प्रकार दूसरे की प्रेरणा से, झिझक पूर्वक किये हुए लोभमूलक दुष्कृत्य को 'ससांस्कारिक' (ससंखारिक) कहेंगे
और बिना किसी दूसरे की प्रेरणा के और बिना झिझक के साथ किये हुए कर्म को 'असांस्कारिक (असंखारिक) कहेंगे, जैसा हम कुशल-चित्त के विवेचन में भी पहले देख चुके हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि लोभ-मूलक अकुशल-चित्त कामनाओं के लोक (कामावचर-भूमि) में ही हो सकते हैं। इससे आगे उनकी पहुंच नहीं। आठ प्रकार के लोभ-मूलक अकुशल-चित्तों के स्वरूप का परिचय देखिए---
१. सौमनस्य के साथ, मिथ्या धारणा से युक्त, असांस्कारिक २. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से युक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से रहित, असांस्कारिक ४. सौमनस्य के साथ, मिथ्याधारणा से रहित, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा के साथ, मिथ्याधारणा से युक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से युक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा के साथ, मिथ्या धारणा से रहित, असांस्कारिक ८. उपेक्षा के साथ, मिथ्या-धारणा से रहित, ससांस्कारिक
(ख) द्वेष-मूलक दो अकुशल-चित्त
१. दौर्मनस्य के साथ, द्वेष-युक्त, असांस्कारिक ( चित्तकी द्वेपमयी अवस्था में सौम२. दौर्मनस्य के साथ, द्वेष-युक्त, ससांस्कारिक र नस्य या उपेक्षा नहीं रह सकती।
द्वेष की चंचलतापूर्ण अवस्था में धारणाओं का भी कोई विचरण नहीं होता।