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( ३३२ ) प्रकट होता है । 'सो-सोर-थर-पा' (विनय-पिटक का निब्बती संस्करण) 'जुजु-ग्न्सि', 'गिबुन् रित्त', 'भक्-सोगि-रित्सु', 'कोत्-पोन्-सेल्न - इम्से-उबु' और 'गोबुन रित्सु' (विनय-पिटक के विभिन्न चीनी संस्करण) आदि किस तथ्य को प्रकट करते हैं ? किस गाया को वे दुहराते है ? म्याम, बरमा ओर ललंका में आज भी जो कापाय-वस्त्रों की जीतीजागती ज्योति चमकती है, वहाँ के भिक्षु-संघ के जीवन का जो संचालन नास्ता के द्वारा मध्य-मंडल में आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व उपदिष्ट नियमों के अनुमार होता है, वह सब किस कहानी को कहता है ? चाहे चीन, जापान और तिब्बत को ओर देख, चाहे लंका, स्याम और बरमा की ओर देखें, चाहे आर्य जातियों की ओर देखें, चाहे आर्येतर मंगोलियन और तुरानी जातियों की ओर , जब उन सब से पुछा जाय 'जिस गुरु से तुमने सदाचार को सीखा है, उसका नाम क्या है ?, तो चारों ओर से यही ध्वनि आती है “अयं सो भगवा अग्हं सम्मासम्बुद्धो विज्ञाचरणसम्पन्नो लोकविद् अनुत्तरो पुरिसदम्म मारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवाति ।" निश्चय ही पूर्ण पुरुष, तथागत, भगवान् सम्यक् सम्बद्ध विश्व के एक बड़े भूभाग के सदाचार के उपदेष्टा है, इसका सर्वोत्तम माक्ष्य धम्म के अलावा विनय-पिटक के उन विभिन्न संस्करणों में प्राप्त होता है, जो नाना देशों में पाये गये है और जो इम वात के सूचक है कि किम गम्भीर मनन और चिन्तन के साथ वहाँ विनय-नियमों की ममीक्षा की गई है और उनका जीवन में अनुसरण किया गया है। इस देश में उत्पन्न अग्रजन्माओं में संसार के सब देशों के मनुष्य अपने-अपने सदाचार को मीखें, यह तो मन ने भी कहा था। किन्तु किस भारतीय मनीपी या ऋपि ने यह काम किया? उनमें से अनेक तो चातुर्वर्णी शुद्धि भी नहीं मिग्वा सके, फिर विश्व का शास्ता बनना तो दूर की बात थी? जिस गौरव की ओर मनु ने स्मरण दिलाया था उसे भारतीय भूमि और संस्कृति को प्रदान करने वालों में भगवान वह ही अग्र हैं, श्रेष्ट है। वे सर्वोत्तम अर्थो में लोक-शाम्ता हैं , लोक-गरु है, यह विनय-पिटक के नाना देशों में विकास ने भली भांति प्रकट कर दिया है। न केवल बौद्ध देगों या बौद्ध मतावलम्बियों तक ही यह प्रभाव मीमित है, बल्कि ईमाई धर्म की उत्पनि, उसके वप्तिस्मा-नियम तथा चर्च-सम्बन्धी विधान में उन बौद्ध धर्म-प्रचारकों का, जिन्हें अगोक ने पश्चिमी एगिया और यूरोप के देशो में भेजा था, कितना प्रभाव उपलभित है, इसमें इतिहासवेनाओं के आज दो मत