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________________ संवाद देखते हैं जो शास्ता और शिष्य के सम्बन्ध के अलावा बुद्ध-धर्म के प्रारम्भिक स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डालता है। “भन्ते ! पहले गृहस्थ रहते मुझे धर्म से बहुत लाभ न मिला था। किन्तु भन्ते ! आज मैंने धर्म को जान लिया। मुझे वह मार्ग मिल गया !” “साधु उदायी ! तुझे वह मार्ग मिल गया। जैसे जैसे तू इसकी भावना करेगा, वृद्धि करेगा, यह तुझे वैसे ही भाव को ले जायगा जिससे कि तू जानेगा “आवागमन क्षय हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो चुका, करना था सो कर लिया, अब कुछ करने को बाकी नहीं है।" भगवान् का अपने शिष्य भिक्षुओं के साथ कैसा अनुकम्पायमय सम्बन्ध था, इसका एक और उदाहरण इसी निकाय में देखिये। मग्ग-संयुत्त के चुन्द-सुत्त में हम चुन्द समणुदेस को भगवान् के पास धर्मसेनापति के परिनिर्वाण का सन्देश लाते देखते हैं। इसे सुनते ही आनन्द की क्या हालत होती है, यह उन्हीं के शब्दों में सुन लीजिए "आयुष्मान् सारिपुत्र परिनिर्वृत्त हो गये, यह सुन कर मेरा शरीर ढीला पड़ गया है, मुझे दिशाएँ नहीं सूझतीं, बात भी नहीं सूझ पड़ती।!" भगवान् सचेत करते हैं “क्यों आनन्द ! क्या मैने पहले ही नहीं कह दिया है कि सभी प्रियों से जुदाई होती है। इसलिये आनन्द ! आत्मदीप, आत्म-शरण, अ-परालम्बी होकर विहरो! धम्मदीप, धम्म-शरण, अपरालम्बी होकर विहरो।" इसी संयुत्त के उक्काचेल-सुत्त में सारिपुत्र के परिनिर्वाण के थोड़े दिन बाद ही भगवान को अपने द्वितीय प्रधान शिष्य महामौद्गल्यायन के भी परिनिर्वाण की सूचना मिलती है। सभी शिष्य अपने शास्ता के सहित स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ इस दुःख को सहते हैं। एक दिन भगवान् गंगा की रेती में उक्काचेल नामक स्थान पर विहरे रहे हैं। भिक्षु-परिषद को विज्ञापित करने के लिये बैठते हैं किन्तु सर्व प्रथम ध्यान आता है अपने सद्यः परिनिवृत्त शिष्य सारिपुत्र और मौद्गल्यायन का। बुद्ध का मानवीय रूप फूट पड़ता है "भिक्षुओ ! सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के बिमा मुझे यह परिषद् शून्य सी जान पड़ती है। जिस दिशा में सारिपुत्र-मौद्गल्यायन विहरते थे, वह दिशा किसी और की न चाहने वाली होती थी" इतना ही कह पाते हैं कि भगवान् का मानवीय रूप उनके बुद्ध-रूप में परिवर्तित हो जाता है और "भिक्षुओ! आश्चर्य है तथागत को! अद्भुत है तथागत को! इस प्रकार के शिष्यों की जोड़ी के परिनिर्वृत्त हो जाने पर भी तथागत को शोक-परिदेव नहीं है। ... भिक्षुओ ! जैसे महान् वृक्ष के खड़े रहते भी उसकी सारवाली
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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