________________
रूपी मध्यम-मार्ग के आचरण तथा चार आर्य सत्यों का उपदेश देते यहाँ हम प्रथम वार भगवान् को देखते हैं। सळायतन-संयुत्त में (यहाँ भी विनय-पिटकमहावग्ग के समान ही) हम तथागत को भिक्षुओं को इस प्रकार सम्बोधित करते हुए देखते हैं "भिक्षुओ ! जितने भी मानुष और दिव्य पाश हैं, मैं उन सब से मुक्त हूँ। तुम भी दिव्य और मानुष पाशों से मुक्त होओ! भिक्षुओ! बहत जनों के हित के लिये, बहत जनों के सुख के लिये, लोक पर दया करने के लिये, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिये, हित के लिये, सुख के लिये विचरण करो। एक साथ दो मत जाओ ! भिक्षुओ! आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी धर्म का उसके पूरे शब्दों और अर्थों के साथ उपदेश करते हुए सम्पूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो । संसार में अल्प दोष वाले प्राणी भी हैं। धर्म के न श्रवण करने से उनकी हानि होगी। सुनने से वे धर्म के जानने वाले होंगे। भिक्षुओं ! मैं भी जहाँ उरुवेला और सेनावी गाँव हैं, वहाँ धर्म-देशना के लिये जाऊँगा।” सतिपट्ठान-संयुत्त के जरा-सुत्त में भगवान् की वृद्धावस्था का सजीव चित्र है। भगवान् अपराह्न में ध्यान से उठ कर धूप में बैठे हैं। आनन्द भगवान् को देखकर कहते हैं “आश्चर्य भन्ते ! अद्भुत भन्ते ! भगवान् के चमड़े का रंग उतना परिशुद्ध, उतना पर्यवदात (उज्ज्वल) नहीं है। अंग भी शिथिल हो गये हैं। पूरी काया में झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं। शरीर आगे की ओर झुका है। आँख, कान, नाक आदि इन्द्रियों में भी विपरिणाम दिखाई पड़ता है ।" “आनन्द ! यह ऐसा ही होता है ! यौवन में जरा-धर्म है, आरोग्य में व्याधि-धर्म है। जीवन में मरण-धर्म है।" हम भगवान् और उनके उपस्थाक शिष्य के विमल मनुष्य-रूप को यहाँ देखते हैं। इसी निकाय के सकलिक-सुत्त में हम सूचना.पाते हैं कि भगवान् का पैर पत्थर के टुकड़े से विक्षत हो गया है और वे स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ उसको सहन कर रहे हैं। इसी प्रकार सक्क-संयुत्त में अनाथपिडिक की दीक्षा एवं जेतवन-दान का वर्णन है। विनय-पिटक के चुल्लवग्ग में भी यही वर्णन आया है। संयुत्त-निकाय के भिक्खु-संयुत्त में हम सुचना पाते हैं कि कौशाम्बिक भिक्षुओं के दुर्व्यवहार के कारण भगवान् पात्र-चीवर ले बिना किसी भिक्षु को कहे अकेले ही पारिलेय्यक (पालिलेय्यक भी) नामक स्थान में एकान्त-वास के लिये चले गये हैं। संयुत्त-निकाय के 'उदायि-सत्त' में हम भगवान् और स्थविर उदायी का