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पिटक पाया जाता है उसमें उन दस बातों में से, जिनके निर्णय के लिये वैशाली की सभा बुलाई गई थी, अधिकांश बातें स्पष्टतः बुद्ध मन्तव्य के विपरीत ठहराई ईं हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि आज जिस रूप में विनय-पिटक हमें प्राप्त है वह वैशाली की सभा से पूर्व का नहीं हो सकता । यदि ऐसा होता, तो स्थविरों को इतना वाद-विवाद करने की आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि वहाँ तो स्पष्टतः उन्हें निषिद्ध बतलाया ही गया है। अतः ऐसा माना गया है कि पहले विनय-पिटक का रूप कुछ और रहा होगा और बाद में वैशाली की सभा के बाद उसके निर्णयों को उसमें उचित स्थानों में समाविष्ट कर दिया होगा । 3 हम यह अस्वीकार नहीं करते कि वैशाली की सभा के परिणाम स्वरूप विनयपिटक के स्वरूप में कुछ संशोधन या परिवर्द्धन न किया गया हो, किन्तु हम यह नहीं मान सकते कि तत्त्वतः वैशाली की सभा से पूर्व के विनय और आज वह जिस रूप में पाया जाता है, उसमें कोई भेद है । वास्तव में बात यह है कि वैगाली की सभा से पूर्व और उसके कुछ शताब्दियों बाद तक भी 'विनय', जैसे कि अन्य बुद्ध वचन, मौखिक अवस्था में ही रहे । अतः यदि विनय-पिटक का स्वरूप वैशाली की सभा से पहले का भी यदि आज का सा ही होता, तो भी उन दस बातों पर विवाद चल सकता था, जिन पर वैशाली की सभा में वह चला और जिनमें से बहुतों के ऊपर विनय का आज स्पष्ट साक्ष्य उपलब्ध है । अतः यह मानने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती कि वर्तमान विनय-पिटक वैशाली की सभा से पहले का नहीं है । हाँ, वैशाली की सभा ने एक बात पहली बार स्पष्ट कर दी है। वह यह कि जिस भिक्षुसभा ने वैशाली में मिल कर अपने मतानुसार प्रामाणिक बुद्ध मन्तव्य के अनुसार वैशाली के वृज्जियों के अनाचार की निन्दा की, उनका ही एक मात्र संग्रह बुद्ध वचनों का नहीं है । जिन भिक्षुओं की इस सभा में पराजय हो गई, उन्होंने अपनी अलग एक भारी सभा (महा - संगीति) की, जिसमें उन्होंने अपने मतानुसार नये बुद्ध वचनों की सृष्टि की। इनके विषय में 'दीपवंस' में कहा गया
१. कुछ उद्धरणों के लिये देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ६२-६४ २. यह निष्कर्ष डा० रमेशचन्द्र मजूमदार ने निकाला है। देखिये बुद्धिस्टिक स्टडीज पृष्ठ ६२
३. बुद्धिस्टिक स्टडीज, पृष्ठ ६३-६४; ओल्डनबर्ग को भी यही मत मान्य है, देखिये वहीं पृष्ठ ६४, पदसंकेत १