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(३) संवत् १८६० में वाकीदास जोधपुर-नरेश महाराजा मानसिंह के गुरू नाथपथी आयस देवनाथ के सपर्क में आये। उन्होने बाकीदास को महाराजा के सामने उपस्थित किया। महाराजा उनकी विद्या और कवित्व-शक्ति को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्हे लाखपसाव पुरुस्कार दिया, जिसमें उन्हे दो गाव भी मिले। आगे चलकर महाराज ने उन्हे अपना 'भाषा-गुरु' बनाया। महाराज उनका बडा आदर करते थे। राजस्थान के अन्यान्य दरवारो में भी उनका अच्छा सम्मान था।
महाराजा के व्यवहार से प्रसन्न होकर वाकीदास ने 'अ-जाची' व्रत, अर्थात् महाराजा को छोडकर और किसी से न मागने का व्रत, ग्रहण कर लिया। एक बार उदयपुर के गुणग्राही महाराणा भीमसिंह ने उनको पुरुस्कृत करने के लिये अपने सरदारो को भेज कर बुलवाया पर उन्होने क्षमा-प्रार्थना करली।
सवत् १८७० में जयपुर नरेश जगतसिंह के साथ आये हुए कविवर पद्माकर का वाकीदास के साथ शास्त्रार्थ हुआ, जिसमे बाकीदास जयी हुए।
वाकीदास का देहान्त स० १८६० में सावण सुदी ३ को जोधपुर में हुआ। मातमपुर्सी के लिए महाराजा मानसिंह कविराजा के स्थान पर पधारे और उनके विषय मे ये मरसिये कहे
मद्-विद्या बहु साज, वाकी थी वाका वसू । कर सूची कवराज, प्राज कठी गो, आसिया। विद्या कुळ विख्यात, राज-काज हर रहस-री ।
वाका | तो विरण वात, किण आगळ मन-री कहा ? ( अनेक साजो वाली सुन्दर विद्या वाकीदास के कारण 'वाकी' थी। हे आसिया । हे कविराज । उसे 'सीधी (अपनी बकिमा से हीन) करके तू कहा चला गया ?
कुल-विस्यात विद्या की, राजकार्य की, लालसा की और आनद की मन की बातें, हे वाकीदास | आज तेरे बिना किसके आगे कहे ? )
वाकीदास बडी स्वतन्त्र प्रकृति के और स्पष्ट वक्ता पुरुप थे। राजपूताने के राजाओ का विना युद्ध के अग्रेजो की अधीनता स्वीकार कर लेना उनको बहुत प्रखरा और इसके लिये उनको उन्होने बुरी तरह फटकारा । इस सवध में उनका यह गीत बहुत प्रसिद्ध है -
आयो अगरेज मुलक रै ऊपर, प्राहम लीचा खैच उरा। धणिया मरे न दीधी धरती, धणिया ऊभा गई धरा ।। फौजा देख न कीधी फौजा, दोयण किया न खळा-डळा। खवा खाच चूड खावद-रै उणहि-ज चूडै गयी यळा ॥ छत्रपतिया लागी नहँ छारणत, गढपतिया घर परी गुमी। वळ नहँ कियो बापडा बोता, जोता-जोता गई जमी ॥ दुय चत्र मास वादियो दिखणी, भोम गई सो लिखत भवेस । पूगो नही चाकरी पकडी, दीधो नही मडैठो देस । वजियो भलो भरतपुर-वाळो, गाजै गजर घजर नभ-गोम । पैला सिर साहब-रो पडियो, भड ऊभ नह दीधी भोम ।।