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विशेष महत्त्वपूर्ण है। इनकी त्यातो का महत्त्व ऐतिहासिक ही नही, किन्तु साहित्यिक भी है। तीनो ही कृतिया प्राचीन राजस्थानी गद्य की अत्यन्त प्रौढ और उत्कृष्ट रचनाएँ कही जा सकती है।
'ख्यात' के दो प्रकार किये जा सकते है(१) जिसमे सळग या लगातार इतिहास हो, जैसे दयालदाम की ख्यात । (१) जिसमें अलग-अलग 'वातो' का संग्रह हो, जैसे नएसी की ख्यात ।
वाकीदास की स्यात दूसरे प्रकार में अन्तर्भूत होती है, पर नैणसी की त्यात से वह भिन्न प्रकार की है। नरसी की त्यात की 'वातें' बडी-बडी है जो कई पृष्ठो तक चलती है। उनको क्रम से लगा देने से सळग इतिहास बन जाता है। पर वाकीदास की 'दातें'- छोटे-छोटे फुटकर नोटो के रूप में है। लेखक को जब जो वात नोट करने योग्य मिली, उसने तभी उसे नोट कर लिया। उनमें कोई क्रम नही है। क्रम से लगाने पर भी उससे शृङ्खलावद्ध और सळग इतिहास नहीं बनता। अधिकाश बातें दो-दो अथवा तीन-तीन पक्तियो की ही है। पूरे पृष्ठ तक चलने वाली वातें कोई विरली ही है ।
बांकीदास बाकीदास आसिया शाखा के चारण थे । चारणो के दो भेद काछेला (कच्छ के) और मारू (मारवाड के) है। आसिया मारू चारणो की एक शाखा है, जिसका प्रारम्भ आसा नामक व्यक्ति से हुआ। राजस्थान में बहुत पहले नाग जाति का राज्य था, जिसके स्मारक के रूप में नागौर, नागदा, नागादरी, नाग तालाव आदि नाम अभी तक चले आये है। आसिया चारए नागो के पोळ-पात (याचक) थे। नागो के बाद मारवाड में प्रतिहारो (पड़िहारो) का राज्य हुआ। आसिया पडिहारो के पोळपात भी रहे। पडिहारो के बाद राठोड मारवाड के स्वामी हुये। मारवाड के राव जोवा ने आसिया पूजा को खाटावास गाव सासरण मे दिया। उसके कनिष्ठ पुत्र माला को सिवाणा के स्वामी राठोड देवीदास ने भाडियावास गाव दिया। माला की नवी पीढी में बाकीदास हये।
१ पूजो, २. मालो, ३. वैरसल, ४. भीमो, ५. खेतमी, ६ नाथो, ७ सूजो, ८ सगतीदान, ६ फतसिंघ, १० वांकीदास, ११ भारतदान, १२ मुरारिदान (जसवन्त जसोभूषण के कर्ता)।
. कविराजा बाकीदास का जन्म भाडियावास गाव में स० १८३८ में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पिता की देखरेख में हुई। सोलह वर्ष की अवस्था होने पर आगे शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वे रामपुर के ठाकुर ऊदावत अर्जुनसिंह के पास गये। अर्जुनसिंह ने जोधपुर में उनकी गिक्षा का प्रवन्च कर दिया । वचपन में किये हुये अर्जुनसिंह के इस उपकार को वे कभी नहीं भूले !*
* एक दिन कविराजाजी महाराज मानसिंह के साथ हाथी पर चढे हुए जा रहे थे। मार्ग में अर्जुनसिंहजी मिले और उन्होने पुरानी वातो की याद दिलाई। उस समय वांकीदास ने यह दोहा कहा -
माळी ग्रीवम माय, पोख मुजळ द्रुम पाळियो । जिण-रो जस किम जाय, अत घण वठा ही. अजा ॥