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बहुमुखी कृतित्व का कुछ भी अपकार नहीं होता । इसी बात को लेकर प्राचार्य आश्चर्य करते हैं कि-'भगवन् ! आपने क्रोध को तो बहुत पहले ही, आध्यात्मिक विकासक्रम के अनुसार नववें गुण-स्थान में ही नष्ट कर दिया था, फिर क्रोध के अभाव में चौदहवें गुण-स्थान तक के कर्मरूपी शत्रुओं को कैसे परास्त किया ?' परन्तु इलोक के उत्तरार्द्ध में बर्फ का उदाहरण स्मृति में आते ही आश्चर्य का समाधान हो जाता है। वर्फ कितना अधिक ठंडा होता है, पर हरे-भरे वनों को किस प्रकार जलाकर नष्ट कर डालता है ? आग के जले हुए वृक्ष तो संभव है, समय पाकर फिर भी हरे हो जाएँ, परन्तु हिम-दग्ध कभी भी हरे नहीं हो पाते । अस्तु, शीतल क्षमा की शक्ति ही महान् है ।
वीर-स्तुति-इसमें भगवान् महावीर की स्तुति की गई है। यह सूत्रकृतांगसूत्र का एक अध्ययन है, जिसमें जम्बू स्वामी के प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा ने भगवान् महावीर के स्वरूप का वर्णन किया है। इसकी भापा प्राकृत है, जो बहुत ही प्राञ्जल और सरल है । कवि श्री जी ने वीर-स्तुति का सरल अनुवाद गद्य में और साथ ही पद्य में भी किया है तथा विशेष प्रसंगों पर मार्मिक टिप्पण भी दिए हैं। कुछ पद्यानुवाद के नमूने दे रहा हूँ
"जिस प्रकार अपार सागर वह स्वयंभू-रमण है, त्यों अखिल विज्ञान में वह वीर सन्मति श्रमण है। कर्म-मुक्त कषाय से निलिप्त, धन्य पवित्रता, . देव-पति श्री शक्र-सम द्युति की अनन्त विचित्रता ।।"
"मेघ गर्जन है अनुत्तर शब्द के संसार में, कौमुदी-पति चन्द्रमा है श्रेष्ठ तारक-हार में । सब सुगन्धित वस्तुओं में बावना चन्दन प्रवर, विश्व के मुनि-वृन्द में निप्काम सन्मति श्रेष्ठतर ॥"
x "शूरवीरों में यशस्वी वासुदेव अपार है, अखिल पूष्पों में कमल अरविन्द गन्धागार है। क्षत्रियों में चक्रवर्ती सार्व-भौम प्रधान है, विश्व के ऋषि-वृन्द में श्री वर्द्धमान महान् है ।"
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