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व्यक्तित्व और कृतित्व
"भोजनादिक दान में उत्तम अभय का दान है, सत्य में निप्पाप करुणा - सत्य की ही ज्ञान है । ब्रह्मचर्य महान् है तप के अखिल व्यवहार में, ज्ञात-नन्दन है श्रमण उत्तम सकल संसार में || "
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भूमि पर,
"सागरों में ज्यों स्वयंभू श्रेष्ठ सागर देव- पति धरणेन्द्र नागकुमार - गण में उच्च तर । सब रसों में प्रमुख रस है ईख का संसार में, वीर मुनि त्यों प्रमुख हैं तप के कठिन प्रचार में ||"
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जिनेन्द्र स्तुति - इसमें चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की गई है । यह कविश्री जी की स्वयं की कृति है । इसके सम्बन्ध में कवि स्वयं अपना विचार इस प्रकार अभिव्यक्त करता है
"ग्राज का दिन, मेरे अब तक के जीवन में बड़ा ही सौभाग्यप्रद है कि मैंने अपने श्रन्तर्हृदय की श्रद्धा को कविता के रूप में, वर्तमान अवसर्पिणी कालचक्र में मानव संसार को समय-समय पर सत्य की अखण्ड ज्योति का साक्षात्कार कराने वाले चौवीस तर्थंकरों के पवित्र चरणों में अर्पण कर रहा हूँ ।
आज प्रातः ज्यों ही संस्तारक ( शय्या) से उठा, धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगा, भगवद्भक्ति के प्रवाह में बहने लगा कि भगवान् महावीर की स्तुति का एक पद्य वन गया । ज्यों ही दूसरी बार विचारधारा वही कि भगवान् ऋषभदेव की स्तुति तैयार हो गई । अव तो संकल्प ने बल पाया और मैं सम्पूर्ण जिन स्तुति लिखने बैठ गया । भगवान् की असीम कृपा से यह मंगल प्रयास आज ही पूर्ण हो गया, मैं हर्प से नाच उठा ।
कविता लिखने की सनक तो पुरानी है, परन्तु इस ढंग से मन्दाक्रान्ता जैसे कठिन संस्कृत छन्द में लिखने का यह पहला ही सत्साहस है । कविता की दृष्टि से सम्भव है, मैं इसमें पूरा न उतरा होऊँ, पर भगवद् स्तुति का लाभ उठाने में तो अपने विचार में सफल हो ही गया हूँ ।"