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लघु-शान्ति स्तव ।
१४५ जिनशासननिरतानां, शान्तिनतानां च जगति जनतानाम् । श्रीसम्पत्कीर्तियशो, वर्द्धनि! जय देवि! विजयस्व ॥११॥
अन्वयार्थ-'भक्तानां जन्तूनां भक्त जीवों का 'शुभावहे!' मला करने वाली, 'सम्यग्दृष्टीनां सम्यक्त्वियों को 'धृतिरतिमतिबुद्धिप्रदानाय' धीरज, प्रीति, मति और बुद्धि देने के लिये 'नित्यम्' हमेशा 'उद्यते!' तत्पर, 'जिनशासननिरतानां जैन-धर्म में अनुराग वाले तथा 'शान्तिनतानां' श्रीशान्तिनाथ को नमे हुए 'जनतानाम्' जनसमुदाय की 'श्रीसम्पत्कीर्तियशोवर्द्धनि' लक्ष्मी, सम्पत्ति, कीर्ति और यश को बढ़ाने वाली 'देवि!' हे देवि ! 'जगति जगत में 'जय' तेरी जय हो तथा 'विजयस्व' विजय हो ॥१०॥११॥
भावार्थ हे देवि ! जगत् में तेरी जय-विजय हो । तु भक्तों का कल्याण करने वाली है; तू सम्यक्त्वियों को धीरज, प्रीति, मति तथा बुद्धि देने के लिये निरन्तर तत्पर रहती है
और जो लोग जैन-शासन के अनुरागी तथा श्रीशान्तिनाथ भगवान् को नमन करने वाले हैं; उन की लक्ष्मी, सम्पत्ति तथा यश-कीर्ति को बढ़ाने वाली है ॥१०॥११॥
सलिलानलविषविषधर,-दुष्टग्रहराजरोगरणभयतः । राक्षसरिपुगणमारी,-चौरतिश्वापदादिभ्यः ॥१२॥ अवरक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्ति च कुरु कुरु सदेति । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं, कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वम् ॥१३॥