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प्रतिक्रमण सूत्र । 'भद्र-कल्याण-मंगल प्रददे' सुख, शान्ति और मंगल देने वाली, 'च' तथा 'सदा' हमेशा 'साधूनां' साधुओं के 'शिवसुतुष्टिपुष्टिप्रदे' कल्याण और सन्तोष की पुष्टि करने वाली हे देवि ! 'जीयाः' तेरी जय हो ॥८॥
भावार्थ-हे दोव ! तेरी जय हो, क्यों कि तू चतुर्विध संघ को सुख देने वाली, उसकी बाधाओं को हरने वाली और उस का मंगल करने वाली है तथा तू सदैव मुनियों के कल्याण, सन्तोष और धर्म-वृद्धि को करने वाली है ॥८॥
भव्यानां कृतसिद्धे!, नितिनिर्वाणजननि ! सत्वानाम् । अभयप्रदाननिरते !, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे! तुभ्यम् ॥९॥
अन्वयार्थ----'भव्यानां भव्यों को 'कृतसिद्धे!' सिद्धि देने वाली; 'निवृतिनिर्वाणजननि!' शान्ति और मोक्ष देने वाली, 'सत्त्वानाम्' प्राणियों को 'अभयप्रदाननिरते!' अभय-प्रदान करने में तत्पर, और 'स्वास्तिप्रदे' कल्याण देने वाली हे देवि ! 'तुभ्यम्' तुझ को 'नमोऽस्तु' नमस्कार हो ॥९॥
भावार्थ-हे दोव ! तुझ को नमस्कार हो । तू ने भव्यों की कार्य-सिद्धि की है; तू शान्ति और मोक्ष को देने वाली है; तू प्राणिमात्र को अभय-प्रदान करने में रत है और तू कल्याणकारिणी है ॥९॥ 5. भक्तानां जन्तूनां, शुभावहे नित्यमुद्यते ! देति !
सम्यग्दृष्टीनां धृति,-रतिमतिबुद्धिप्रदानाय ॥१०॥