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________________ क्षेत्रदेवता की स्तुति। १३५ * सुंअदेवया भगवई, नाणावरणीअकम्मसंघायं । तेसिं खवेउ सययं, जेसिं सुअसायरे भत्ती ॥१॥ अन्वयार्थ-'जेसिं' जिन की 'सुअसायरे' श्रुत-सागर पर 'सयय' निरन्तर 'भत्ती' भक्ति है 'तेसिं' उन के 'नाणावरणीअकम्मसंघायं' ज्ञानावरणीय कर्म-समूह को 'भगवई' पूज्य 'सुअदेवया' श्रुतदेवता ‘खवेउ' क्षय करे ॥१॥ भावार्थ-भगवती सरस्वती; उन भक्तों के ज्ञानावरणीय कर्म को क्षय करे, जिन की भक्ति सिद्धान्तरूप समुद्र पर अटल है ॥१॥ ४०-क्षेत्रदेवता की स्तुति । x खित्तदेवयाए करेमि काउस्सगं । अन्नत्थ० । अर्थक्षेत्रदेवता की आराधना के निमित्त कायोत्सर्ग करता हूँ। + जीसे खित्ते साहू, दसणनाणहिँ चरणसहिएहिं । साहति मुक्खमग्गं, सा देवी हरउ दुरिआई ॥१॥ * श्रतदेवता भगवती, ज्ञानावरणीयकर्मसंघातम् । ___ तेषां क्षपयतु सततं, येषां श्रुतसागरे भक्तिः ॥१॥ क्षेत्रदेवतायै करोमि कायोत्सर्गम् । + यस्याः क्षेत्रे साधवो, दर्शनशानाभ्यां चरणसहिताभ्याम् । साधयन्ति मोक्षमार्ग, सा देवी हरतु दुरितानि ॥१॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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