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१३१ प्रतिक्रमण सूत्र । ___ अन्वयार्थ–'कलङ्कनिर्मुक्तम्' निष्कलङ्क, 'अमुक्तपूर्णतं' पूर्णता-युक्त, 'कुतर्कराहुप्रसनं' कुतर्करूप राहु को ग्रास करने वाले, 'सदोदयम् निरन्तर उदयमान और 'बुधैर्नमस्कृतम्' विद्वानों द्वारा प्रणत; ऐसे 'जिनचन्द्रभाषितं' जिनेश्वर के आगमरूप 'अपूर्वचन्द्रं' अपूर्व चन्द्र की 'दिनागमे' प्रातःकाल में 'नौमि' स्तुति करता हूँ ॥३॥
भावार्थ-जैन-आगम, चन्द्र से भी बढ़ कर है, क्यों कि 'चन्द्र में कलङ्क है, उस की पूर्णता कायम नहीं रहती, राहु उस को ग्रास कर लेता है, वह हमेशा उदयमान नहीं रहता, परन्तु जैनागम में न तो किसी तरह का कलङ्क है, न उस की पूर्णता कम होती है, न उस को कुतर्क दूषित ही करता है। इतना ही नहीं बल्कि वह सदा उदयमान रहता है, इसी से विद्वानों ने उस को सिर झुकाया है। ऐसे अलौकिक जैनागम-चन्द्र की प्रातःकाल में मैं स्तुति करता हूँ ॥३॥
३९-श्रुतदेवता की स्तुति । * सुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं । अन्नत्थ० ।
अर्थ--श्रुतदेवता–सरस्वती-वाग्देवता--की आराधना के निमित्त कायोत्सर्ग करता हूँ।
श्रतदेवतायै करोमि कायोत्सर्गम् ।