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वंदित्त सूत्र । [ छठे व्रत के अतिचारों की आलोचना ] * गमणस्स उ परिमाणे, दिसासु उड्ढे अहे अतिरिअंच।
बुड्ढि सइअंतरद्धा, पढमम्मि गुणन्चए निंदे ॥१९॥
अन्वयार्थ— 'उड्' ऊर्ध्व 'अहे' अधो 'अ' और 'तिरिक्षं च' तिरछी [ इन] 'दिसासु' दिशाओं में 'गमणस्स उ' गमन करने के ‘परिमाणे' परिमाण की 'बुड्ढि' वृद्धि करना और 'सइअंतरद्धा' स्मृति का लोप होना (ये अतिचाररूप हैं ) पढमम्मि' पहले 'गुणव्वए' गुण-व्रत में (इन की मैं ) 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥१९॥
भावार्थ-साधु संयम वाले होते हैं। वे जङ्घाचारण, विद्याचारण आदि की तरह कहीं भी जावें उनके लिये सब जगह समान है। पर गृहस्थ की बात दूसरी है, वह अपनी लोभ-वृत्ति को मर्यादित करने के लिये ऊर्ध्व-दिशा में अर्थात् पर्वत आदि पर, अधो-दिशा में अर्थात् खानि आदि में और तिरछी-दिशा में अर्थात् पूर्व,पश्चिम
आदि चार दिशाओं तथा ईशान, अग्नि आदि चार विदिशाओं में जाने का परिमाण नियत कर लेता है कि मैं अमुक-दिशा में
* गमनस्य तु परिमाणे, दिक्षुर्वमधश्च तिर्यक् च ।
वृद्धिः स्मृत्यन्तर्धा, प्रथमे गुणवते निन्दामि ॥१९॥
दिसिवयस्स समणोवासएणं इमे पंच०, तंजहा--उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे अझेदिसिपमाणाइक्कमे तिरिअदिसिपमाणाइक्कमे खित्तवुड्ढी सइअंतरद्धा।
[आवश्यक सूत्र, पृष्ठ १]