________________
प्रातक्रमण सूत्र ।
३१-सातलाख । सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अपकाय, सात लाख तेटकाय, सात लाख वाउकाय, दस लाख प्रत्येक-चनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण-वनस्पतिकाय, दो लाख दो इन्द्रिय वाले, दो लाख तीन इन्द्रिय वाले, दो लाख चार इन्द्रिय वाले, चार लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यश्च पश्चन्द्रिय, चौदह लाख मनुष्य । कुल चौरासी लाख जीवयोनियों में से किसी जीव का मन हनन किया, कराया या करते हुए का अनुमोदन किया वह सत्र मन वचन काया करके मिच्छा मि दुक्कडं ।
३२--अठारह पापस्थान । पहला प्राणातिपात, दूसरा मृपावाद, तीसरा अदत्तादान, चौथा मैथुन, पांचवाँ परिग्रह, छठा क्रोध, सातवाँ मान, आठवाँ माया, नववाँ लोभ दशवाँ राग, ग्यरहवाँ द्वेष, बारहवाँ कलह, तेरहवाँ अभ्याख्यान, चौदहवाँ पैशुन्य, पन्द्रहवाँ रति-अरति, सोलहवाँ परपरिवाद, सत्रहवाँ मायामृषावाद, अठारहवाँ मिथ्यात्वशल्यः इन पापस्थानों में से किसी का मैंने सेवन किया कराया या करते हुए का अनुमोदन किया, वह सब मिच्छा मि दुक्कडं ।।
१ योनि उत्पत्ति-स्थान को कहते हैं । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की समानता होने से अनेक उत्पत्ति-स्थानों को भी एक योनि कहते हैं । (देखो योनिस्तव ।)