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________________ णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ णायपुत्तमहावीरस्स श्रीसूत्रागमप्रकाशकसमिति स्थापन करने का कारण श्रीज्ञातपुत्र महावीर जैनसंघीय मुनिश्री फूलचंद्रजी महाराज जैनधर्मपिदेष्टाकी सेवामें एक किसानने वैदिक प्रेस अजमेर द्वारा प्रकाशित चारों वेदोंकी एक पुस्तक पेश की तथा विनयपूर्वक निवेदन किया कि क्या जैन शास्त्र भी एक पुस्तकाकार के रूप में कहीं मिलते हैं ? श्रीमहाराजने फर्माया कि नहीं । इस घटना के समय वहां की जैन सभा और विशेषतया जैनधर्मोपदेष्टाजी को यह त्रुटि बहुत ही अखरी और बड़ा ही खेद हुआ । जैनसाधु सैंकड़ों की संख्यामें होते हुए और लाखों धनिक श्रावक होनेपर भी वे जैन सिद्धान्तका अणुमात्र मी प्रचार न करें ! कितना ग्वेद है, सच तो यह है कि अपनी पवित्र समाजके पास प्रेग और प्लेटफॉर्म जैमी आधुनिक प्रचारकी सामग्री न होने के कारण इतर लोकसमाज का बहुभाग जैन. सिद्धान्तों से बिल्कुल अपरिचित है। इसाइओने एक अरबसे अधिक रुपया व्यय करके जगत् भरकी ५६६ भाषाओंमें वाई विलका प्रचार किया है इसी भौति गीना और कुरान आदि का प्रचार भी करोड़ों प्रतियोम पाया जाना है परन्तु अपने सूत्रसिद्धान्तों का प्रचार लोकभाषामें कितना है? इसका उत्तर हम गगर्व मम्मक उठाकर नहीं दे सकते। इस भारी कमीको पूरा करनेके लिए श्रीमहाराजने हमें यह प्रेरणा दी कि कमसे कम १०० लोकभाषाओंमें ३२ सूत्रोंकी १००००० एक लाख प्रतिओंका प्रकाशन करके भारत के कोने २ में जैनसिद्धान्तोंका विस्तार किया जाय । अतः समागम, अथोंगम और उभयागमकी प्रकर्ष एवं आर्ष पद्धतिसे "श्रीस्मागमप्रकाशकांमति" ने इस भगीरथ कार्य को अपने हाथमें लिया है और कार्य आरंभ कर दिया है अतः जिनशासनके प्रेमियोंको उचित है कि समितिके प्रकाशनों का स्वाध्याय आप स्वयं करें और अपने घरमें भी समस्त कुटुंबमें स्वाध्याय तपका उत्साह पैदा करें। "न खाध्यायसमं तपः।" निवेदक मंत्री-रामलाल जैन श्रीसूत्रागमप्रकाशकसमिति गुड़गाँव-छावनी (पूर्व पंजाब)
SR No.010591
Book TitleSuttagame 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year1954
Total Pages1300
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_aupapatik, agam_rajprashniya, agam_jivajivabhigam, agam_pragyapana, agam_suryapragnapti, agam_chandrapragnapti, agam_jambudwipapragnapti, & agam_ni
File Size93 MB
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