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स्वाध्यायप्रेमियोंसे शातपुत्र महावीर भगवान्ने साधुचर्याका विभाजन करते हुए श्रीमुखसे फर्माया है कि-'पढमंपोरिसिं सज्झायं' हे निर्पयो! दिनके पहले पहरमें स्वाध्याय करो। 'पुणोचउत्थीए सज्झायं' दिनके चौथे पहरमें भी खाध्याय करो। तदनन्तर रात्रिमें 'पढम पोरिसिं सज्झायं रात्रि का पहला पहर स्वाध्यायमें बिताओ। 'चउत्थी भुज्जोवि सज्झायं' (उ० अ० २६) और रातके चौथे पहरको भी स्वाध्यायमें व्यतीत करो। इस प्रकार भगवान्ने दिनरातके चार पहर अर्थात् १२ घंटे खाध्याय करना मुमुक्षुका मुख्य कर्तव्य कहा है। साथ ही खाध्याय अंतर तपमें भी निहित है। प्रभुने खयं इसका बड़ा माहात्म्य बताया है, यथा-'सज्झाएणं भंते! जीधे किंजणयह? सज्झाएणणाणावरणिज्जं कम्मंखवेइ।' (उ० अ० २९) मुमुक्षु प्रश्न करता है कि भगवन् ! शास्त्रोंके खाध्यायका क्या फल है? तब भगवान्ने उत्तरमें फर्माया कि देवानुप्रिय ! स्वाध्यायके द्वारा ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय होता है और श्रुतज्ञान एवं आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। साधक खाध्याय तपकी साधनामें बढ़ता चला जाय तो ज्ञानकी चरमसीमा (केवलज्ञान) को भी पा सकता है। साथ ही स्वाध्याय करते २ भावोंमें उत्कृष्टता आ जाय तो तीर्थंकर नाम गोत्र कर्मका उपार्जन भी कर सकता है, अतः आपसे सानुरोध इतना ही कहना है कि इस 'सुत्तागमे ग्रंथरसका यतनापूर्वक दिनरातमें १२ घंटे खाध्याय करना न भूलें । क्योंकि लौकिक साहित्यकी अपेक्षा लोकोत्तर साहित्य मौलिक और आत्माके लिए हितावह है। उक्तं च- . एगग्गया य नाणे, इंदियमलणं कसायमलणं च । जयणापरो यं भव्वा!, सज्झायसमो तवो नत्थि ॥१॥ जावइयं सझाए, कालं चिट्ठइ सुहेण भावेण । ताव खवेद पुराणं, नवयं कम्मं न संचिणइ ॥२॥
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संपादक ..