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जैन धर्म का परिग्रहण
ढोगी समझती है तो तू उनकी भक्ति मत कर । किन्तु मण्डप में आग लगाकर उन विचारो के प्राण लेने का यत्न करना तेरी कौन सी बुद्धिमत्ता थी? तू जो अपने को जैनी बतला कर जैन धर्म की डीग मारा करती है, सो तेरी वह डीग सर्वथा व्यर्थ मालूम पडती है। कहा तो जैन धर्म का दयाप्रधान रूप, जिसमे एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक के सभी जीवो की रक्षा की जाती है,
और कहा तेरा यह दुष्ट व्यवहार, जो तूने साधु पुरुषो के प्राण लेने का यत्न किया। अपने इस व्यवहार से तूने उस दयामय धर्म का पालन कहाँ किया ? अब तेरा यह कहना कि मैं जैन हूँ, केवल अपलापमात्र ही है। इस दुष्ट कर्म से तुझे कोई जैनी नही मान सकता।"
महाराज के इस प्रकार के कठोर शब्द सुनकर रानी चेलना ने उनसे बडी विनय तथा शाति से इस प्रकार निवेदन किया___ "कृपानाथ | आप मुझे क्षमा करे। यदि आपकी अनुमति हो तो मैं आपको एक विचित्र कथानक सुनाना चाहती हूँ। आप कृपया उसे ध्यानपूर्वक सुने । उसको सुनकर आप यह निश्चय कर सकेगे कि इस कार्य मे मेरा अपराध कितना है।"
रानी के इस वचन को सुनकर राजा बोले"अच्छा | रानी कहो, तुम कौन सा कथानक सुनाना चाहती हो।" इस पर रानी बोली
"प्राणनाथ | इसी जम्बूद्वीप मे एक वत्सदेश है, जिसकी राजधानी का नाम कौशाबी है । वह कौशाबी उत्तमोत्तम बाग-बगीचो तथा देवतुल्य मनुष्यो से स्वर्गपुरी की शोभा को धारण करती है। कौशाबी मे सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था, जिसकी सेठानी का नाम वसुमती था। उसी कौशाबी मे सुभद्रदत्त नाम का एक अन्य सेठ भी रहता था, जिसकी पत्नी का नाम सागरदत्ता था।
"उन दोनो सेठो मे आपस मे बडी भारी मित्रता भी। एक बार उन दोनों ने अपनी-अपनी पत्नियो को गर्भवती देखकर आपस मे यह निश्चय किया कि यदि दोनों
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