________________
(५१) न गहत है । जैसे शंख उज्जल विविध वर्ण माटी भखे, माटीसा न दीसे नित उज्जल रहत है ॥ तैसे ज्ञानवंत नाना भोग परिग्रह जोग, करत विलास न अज्ञानता लहत है। ज्ञानकला दूनी होय द्वंददशा सूनी होय, ऊनि होय भव थिती बनारसी कहत है ॥ ३८ ॥ . . . ___अव सद्गुरु मोक्षका उपदेश करे है ॥ सवैया ३१ सा.
जोलों ज्ञानको उद्योत तोलों नहि बंध होत, वरते मिथ्यात्व तव नाना बंध होहि है ॥ ऐसो भेद सुनके लायो तूं विषय भोगनसं, जोगनीसु उद्यमकी रीति से विछोहि है ॥ सुनो भैया संत तूं कहे मैं समकितवंत, यहू तो एकंत परमेश्वरका द्रोही है ॥ विपैसे विमुख होहि अनुभौ दशा हरोहि मोक्ष सुख ढोहि तोहि ऐसी मति सोही है ॥ ३९ ॥
. चौपाई ॥ दोहा. ज्ञानकला जिसके घटजागी । ते जगमांहि सहज वैरागी । ज्ञानी मगन विपै सुखमांहीं । यह विपरीत संभवे नाहीं ॥ ४०॥
ज्ञानशक्ति वैराग्य बल, शिव साधे समकाल।
ज्यों लोचन न्यारे रहे, निरखे दोऊ ताल ॥४१॥ मूढ कर्मको कर्ता होवे । फल अभिलाप धरे फल जोवे ॥ ज्ञानी क्रिया करे फल सूनी । लगे न लेप निरा दूनी ॥ ४२ ॥ बंधे कर्गसों मूढ ज्यों, पाट कीट तम पेम । खुले कर्मसों समकिती, गोरख धंदा जेम ॥४३॥ ज्ञानी है सो कर्मका कर्ता नहीं है सो कहै ॥ सवैया २३ सा. जे निज पूरव कर्म उदै सुख, मुंजत भोग उदास रहेंगे ॥ . : . ने दुखमें न विलाप करें, निर वैर हिये तन ताप सहेंगे ॥ . . .