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समय
5 लोचन थिर हो जाय है। अर कवहू या भक्ति आरतीरूप होय प्रभुके सनमुख आवे हे अर - कवहू या भगवंतकी भक्ती सुंदरवाणीरूप होय वाहिर स्तुतिके शब्दरूप उच्चारकरि रहे है ।
जैसीजैसी दशाधरे तव तैसीतैसी रीती करनहार ऐसी हमारे हृदयमें भगवंतकी भक्ति है तातें नाटक ग्रंथकी रचनारूप कार्यमें एक भगवंतकी भक्तिही मेरे साह्यकारी हैं, या भक्ति 5 समस्तकार्य कराय देगी ।। १४ ।। अव नाटक महिमा वरणन ॥ सवैया ३१ सा ॥--
मोक्ष चलिवे शकोन करमको करेवोन, जाके रस भौन बुध लोनज्यों घुलतहै ।।
गुणको गरंथ निरगुणको सुगमपंथ, जाको जस कहत सुरेश अकुलत है। . याहीके जु पक्षीते उडत ज्ञानगगनमें, याहीके विपक्षी जगजालमें रुलत है ॥ . हाटकसो विमल विराटकसो विसतार, नाटक सुनत हीये फाटक खुलत है ॥१५॥
अर्थ-जैसे भले शकूनतै कार्यकी सिद्धि होयहै तैसे मोक्ष चलनेकू यो नाटक भला शकुन है अर कर्मरूप कफके निकासनेको वमन करानेवाला है अर इस ग्रंथका रसरूप भुवन 5 कहिए जलविपे बुध जे ज्ञानीजन ते लवणकी नाई घुलिजाय है, जैसें जलविर्षे लवण एक हूँ होजाय है तैसें भेदविज्ञानी इस नाटकके रसमें तन्मय हो जाय है । गुण जे सम्यक्दर्शन, + ज्ञान अर चारित्रका गठाहै, निर्गुण जो मोक्ष ताका सुगम मार्ग है, इस ग्रंथके जस कहते है इंद्रहू आकुल होयहै, याका अप्रमाण यशके कहनेकू इंद्रभी समर्थ नहीहै । इस ग्रंथरूप पक्ष, कहिए पांख जिन्हके है ते पुरुष ज्ञानरूप आकाशमें उडत है (इसग्रंथकी अनेकांतरूप पक्ष सहित है तेही समस्त ज्ञानमें प्रवर्ते है) अर इस ग्रंथरूप पांख जिन्हकै नही ते जगतरूप जालमें
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नाटक.