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________________ अंग्रेजी-अध्ययन - ३१ ता पाछे चित दै सुन लोजे कछुक हाल अब मेरो । यहँ प्रिय कुशल सबहि बिधि चाहत तेरो कुशल घनेरो। बहु दिन ते नहिं भेजी पाती छाती दरकतिः मेरी। करक करेजा नित ही करकत निठुर बुद्धि कहा तेरी ॥ अब हूँ सोचि समझ कर चेतो कछुक दया उर लावा । मन तुव पीर तीर-सी खरकत ताको तुरत मिटावी। कारण बिना हाय क्यो प्यारे इतक क्रोध तुम कीन्हो । दुष्टराज के बस मे है के क्यो अपयस सिर लीन्हो ॥ जाते लखी परै अब मोको क्रोध तुम्हार पियारो। राखि लियो ताही ते निज उर मोको हाय बिसारो॥ कलुषित कर तेरो मन-दीपक तेल सनेह जरावै ।। हहरि हहरि कर तेरे हिय को ये ही मित्र हरावै ॥ सबही काज नसावै याते दूर करौ तुम याको । मन दृढ करि कटि कसे पियारे पकरह शान्ती ताको । माता त्यागि स्वर्ग को पाई तुम क्यो अब मुख मोरयो। सहपाठीपन भूलि मित्रका रहयो प्रेम अब थोरयो । हा हा करि कर जोरि कहौं नैक पत्री बेग पठावौ । बिरह-बन्हि अभ्यन्तर लागी ताको बेग नसावौ ॥ पाव लगन निज पितु-माता सन कहियो अति ही मेरो। राखे कृपा जानि जन अपनो है। उनका हौ चेरो॥ शुद्ध सनातनधर्म के रक्षक डालचन्द जो प्यारे । छत्रसाल तिनके सुत आदिक अरु जो मित्र हमारे ॥ आशिर्वाद कहो तुम मेरो खूबहि खुशी मनावें। दम्भी और पाखण्डी मत को जरते खोद नसावें ॥ पढ़े आगरे बीच विप्रवर जो बेनीपरसाद । कह तिन सों पालागन मेरो मित्र सहित अल्हाद ।। श्री पंडित ईश्वरप्रसादजू झगनलाल के भ्राता।
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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