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पं० सत्यनारायण कविरत्न
श्रीयुत गोस्वामी लक्ष्मणाचार्यजी "कविरत्नजी का मेरा साक्षात् सवत् १९६६ मे ब्रज-यात्रा मे हुआ था। मथुरा के स्टेशन पर हम लोगो ने एक-दूसरे को अपनी-अपनी कविता सुनाई थी और इस प्रकार हम लोगों का प्रेम-मिलन हुआ। यद्यपि समय की कमी के कारण विशेष बात-चीत न हो सकी; पर पारस्परिक स्नेह को डोर से मन बंध गये थे इसलिये जब-तब पत्र-व्यवहार होता रहा। जब कविरत्नजी उत्तर रामचरित का अनुवाद करने लगे तब उन्होने मुझे सूचना दी थी कि 'ब्रजभाषा मे उत्तर-रामचरित उदय हो रहा है। देखे आप प्रेमियों तक उसका कैसा प्रकाश पडता है।' मैने हर्ष प्रकट करते हुए लिखा कि सत्य पर भगवान भी रीझते है; फिर मनुष्य क्यो न रीझेगे । इसके पश्चात् छपा हुआ रामचरित अवलोकन किया। जिधर देखें उधर ही उस की सुगन्ध फैलती हुई दीख पड़ी। यहाँ तक कि खड़ीबोली के आचार्य मान्यवर द्विवेदीजी ने कविरत्नजी के उत्तर-रामचरित के विषय मे सन्तोष प्रकट करते हुए यह कह दिया कि भाषा रसीली है। इस पर मैने भी कविरत्नजी को बधाई दी। इसके उत्तर में उन्होने लिखा कि भवभूति के उत्तर-रामचरित्र मे मैने कौन सी भलमनसी की ? उल्टी मक्षिका के ठौर मक्षिका कर दी। इस प्रकार विनोद-पूर्ण उत्तर दे उन्होने अपनी निरभिमानता दर्साई थी।
जब आपने सुना कि लखनऊ के पचम हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति श्रीयुत श्रीधर पाठकजी होगे तब आप बड़े चाव से लखनऊ जाने के लिए तैयार हुए और मुझसे भी कहा-चलोगे ? मैने कहा कि मै तो गोबर्धन मे विचरने जाता हूँ। यदि हरि इच्छा हुई तो पहुँचूँगा। विशेष तो ब्रजविहार की ही इच्छा है। तब आपने कहा-''मैं तो ब्रजभाषा की पुकार लेके जरूर जाँऊगो। और कछु नाँय तो ब्रजभाषा सुर-सरी की हिलोर मे सबको मिँजाय तो आऊँगो।" ___ भरतपुर की हिन्दी-साहित्य-समिति के द्वितीय अधिवेशन में नवरत्न श्रीयुत गिरिधर शर्मा, कविरत्नजी और अनेक सज्जन थे। मै भी