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________________ १६० पं० सत्यनारायण कविरत्न पंडितजी महाराज तव निकट विनय इक मोर । पत्रोत्तर दीजो हमे करिके किरपा 'घोर' ॥ नाम लिखने पै कुछ नही मौकूफ, तरज तहरीर से समझ लेना। (एक हितचिन्तक) पंडितजी ने इस पत्र के ऊपर लिख दिया जाने यह कर कमल सो लिख्यो ताहि आसीस । पूजहि करि करुना सकल तासु आस जगदीस ।। और पत्र का उत्तर दिया। तव आवन को सुनत ही उर अति बढयो उछाह । हम प्रेमी पागलन को और चाहिये काह । एक महाशय ने पत्र भेजकर मासाहार के विषय मे आपकी सम्मति Jछी । आपने जबाब मे लिखा भगवन कृपा पत्र तव आयो। अपनो मत यथार्थ प्रगटन मे यह कबहुँ न सकुचायो। जो जग रसना सों जल पीवत ते सब मासाहारी । उनकी दया-रहित रद-रचना मनुज लोक सो न्यारी ।। स्वय सिद्ध यह प्रकृति नियम है फिर कोउ बात बतावे । याही सो कपि खात न आमिस सुलभ सत्य दरसावै ।। किसी मित्र को नये वर्ष की बधाई देते हुए आपने लिखा था यह नई बरस। 'देइ तुमको सकल मंगल मजुफल-प्रद हरस । प्रकृति पावन परम भावन प्रेमकर प्रिय परस । आत्म-गौरव दिव्य दुतिमय अभय जीवन दरस ॥ सुहृद सत जन सरल सुन्दर सदय सहृदय सरस ॥
SR No.010584
Book TitleKaviratna Satyanarayanji ki Jivni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBanarsidas Chaturvedi
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year1883
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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